क्‍या महिला पुलिस अफसर घरेलू हिंसा का शिकार नहीं हो सकतीं? जानें दिल्‍ली हाईकोर्ट ने क्‍या कहते हुए पलटा आदेश

0

नई दिल्ली।

 दिल्ली हाईकोर्ट ने एक महिला पुलिस अधिकारी के पति को IPC के तहत क्रूरता के आरोप से आरोपमुक्त करने के आदेश को रद्द कर दिया. अदालत ने कहा कि किसी भी लैंगिक या पेशे के संबंध में रूढिवादी धारणा अदालत के आदेश में नहीं प्रदर्शित होना चाहिए और हर फैसले में लिंग-तटस्थता रहनी चाहिए. जस्टिस स्वर्ण कांता शर्मा ने कहा कि सत्र अदालत के निष्कर्ष आपराधिक न्यायशास्त्र और निष्पक्ष सुनवाई के सिद्धांतों पर आधारित नहीं, बल्कि एक अनुचित धारणा और पूर्वाग्रह पर आधारित थे कि एक पुलिस अधिकारी कभी भी घरेलू हिंसा का शिकार नहीं हो सकती.

हाईकोर्ट ने एक हालिया आदेश में कहा, ‘विशेष रूप से एक न्यायाधीश के रूप में यह धारणा रखना कि एक महिला (पुलिस अधिकारी के रूप में अपने पेशे के आधार पर) संभवतः अपने व्यक्तिगत या वैवाहिक जीवन में पीड़ित नहीं हो सकती है, अपनी तरह का अन्याय है और गलत धारणा है.’ आदेश में आगे कहा गया, ‘न्यायाधीशों को यह नहीं भूलना चाहिए कि फैसला लिखते समय लिंग तटस्थ होने का विचार न केवल यह है कि निर्णय में प्रयुक्त शब्दावली और शब्द लिंग तटस्थ हों, बल्कि इसका अर्थ यह भी है कि न्यायाधीश का विचार लिंग या पेशे के आधार पर पूर्वकल्पित धारणाओं या पूर्वाग्रहों से मुक्त होना चाहिए.’

हाईकोर्ट का बड़ा आदेश
दिल्‍ली हाईकोर्ट ने अपने आदेश में कहा कि लिंग-तटस्थता का सार निर्णय की प्रत्येक पंक्ति में झलकना चाहिए और न्यायाधीश को ऐसे विचार विकसित करने चाहिए जो स्वाभाविक रूप से लिंग-तटस्थ हों. उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में न्यायिक शिक्षा में लैंगिक संवेदनशीलता के विषय को शामिल करने का भी आह्वान किया और दिल्ली न्यायिक अकादमी को इसे पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने के लिए कहा. अदालत ने कहा कि कानून के तहत न्याय और समानता के सिद्धांतों की अनदेखी की गई और शिकायतकर्ता महिला के लिंग और पेशेवर पृष्ठभूमि पर अनुचित जोर दिया गया.

दिल्‍ली पुलिस में कार्यरत दंपति का मामला
अदालत ने कहा कि मामले में, पति और पत्नी दोनों दिल्ली पुलिस में कार्यरत थे, लेकिन सत्र अदालत ने पत्नी की स्थिति को उसके खिलाफ माना गया, जबकि इसके विपरीत, आरोपी पति की पेशेवर स्थिति के कारण माना गया कि उसने अपनी पत्नी को नहीं डराया धमकाया होगा. आदेश में कहा गया कि न्यायिक अकादमियों का मुख्य कर्तव्य यह सुनिश्चित करने पर होना चाहिए कि न्यायाधीश वादियों को लैंगिक पूर्वाग्रह के चश्मे से न देखें, बल्कि किसी भी छिपे हुए पूर्वाग्रह या धारणा से अवगत रहते हुए लैंगिक तटस्थता, निष्पक्षता, समानता के नजरिये से अपने फैसले लिखें. हाईकोर्ट ने कहा, ‘हर महिला, चाहे उसकी स्थिति या पृष्ठभूमि कुछ भी हो, समान सम्मान, पहचान और कानूनी सुरक्षा तक पहुंच की हकदार है. यह विचार पुरुषों पर भी लागू होता है.’

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

ताजा खबरें