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  • ‘नेहरू ने नहीं दिया महत्व, करुणानिधि भी थे तैयार…’ श्रीलंका को कच्चातिवु द्वीप सौंपने पर नया खुलासा

    ‘नेहरू ने नहीं दिया महत्व, करुणानिधि भी थे तैयार…’ श्रीलंका को कच्चातिवु द्वीप सौंपने पर नया खुलासा

    नई दिल्ली।
    तमिलनाडु के पूर्व मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने कच्चातिवु द्वीप को श्रीलंका को सौंपने के लिए केंद्र द्वारा सुझाए गए समाधान के प्रति अपनी सामान्य स्वीकृति व्यक्त की थी. लेकिन कहा था कि वह राजनीतिक कारणों से इसके पक्ष में सार्वजनिक रुख नहीं अपनाएंगे. ऐसा तब हुआ जब तत्कालीन विदेश सचिव केवल सिंह ने 19 जून 1974 को मद्रास (अब चेन्नई) में मुख्यमंत्री से मुलाकात की थी.

    न्यूज18 के पास मौजूद विदेश मंत्रालय के दस्तावेज अब इन तथ्यों का खुलासा करते हैं. इन दस्तावेजों से द्वीप को लेकर तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की राय का भी पता चलता है. दस्तावेज़ में नेहरू की 10 मई, 1961 की नोटिंग में कहा गया है कि ‘मैं इस छोटे से द्वीप को बिल्कुल भी महत्व नहीं देता और मुझे इस पर अपना दावा छोड़ने में कोई झिझक नहीं होगी. मुझे इस तरह के मामले अनिश्चित काल तक लंबित रहना और संसद में बार-बार उठाया जाना पसंद नहीं है.’

    PM मोदी ने बनाया मुद्दा
    प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कच्चातिवु मुद्दे को एक प्रमुख मुद्दा बना दिया है, क्योंकि उन्होंने 1974 में एक समझौते के तहत इस द्वीप को श्रीलंका को सौंपकर भारत की क्षेत्रीय अखंडता के साथ समझौता करने के लिए कांग्रेस सरकार पर हमला किया है. पीएम मोदी ने कहा कि डीएमके नेता द्वीप वापस पाने के लिए उन्हें लिखते रहते हैं लेकिन इसे सौंपने के लिए अपने भारतीय सहयोगी कांग्रेस पर हमला नहीं करते.

    विदेश मंत्रालय के दस्तावेज से पता चलता है कि DMK ने 1974 में द्वीप को सौंपने के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शुरू किया था, लेकिन पार्टी प्रमुख करुणानिधि ने केंद्र के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया था. दस्तावेजों में विदेश सचिव की सीएम से मुलाकात की बात कही गई है. दस्तावेज में कहा गया है कि ‘प्रस्ताव के सार पर, मुख्यमंत्री ने संकेत दिया कि वह सुझाए गए समाधान को स्वीकार करने के इच्छुक हैं. मुख्यमंत्री ने एक बार फिर सुझाए गए समाधान की अपनी सामान्य स्वीकृति का संकेत देते हुए कहा कि, स्पष्ट राजनीतिक कारणों से, उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती थी इसके पक्ष में सार्वजनिक रुख अपनाने के लिए.’

    दस्तावेज में और क्या-क्या कहा गया है
    दस्तावेज़ में कहा गया है कि मुख्यमंत्री ने विदेश सचिव को आश्वासन दिया कि वह प्रतिक्रिया को ‘कम महत्वपूर्ण’ रखने में मदद करेंगे और इसे बढ़ा-चढ़ाकर पेश नहीं करने देंगे. दस्तावेज़ों में कहा गया है, “विदेश सचिव ने इस भाव की सराहना की और इस बात पर ज़ोर दिया कि केंद्र सरकार को शर्मिंदा करने या मामले को केंद्र और राज्य के बीच के मुद्दे में बदलने के लिए कुछ भी नहीं किया जाना चाहिए.” उन्होंने कि तमिलनाडु सरकार को “श्रीलंका के साथ बातचीत के दौरान सूचित रखा गया था.” उस बैठक में विदेश सचिव ने भी तमिलनाडु सरकार के विचारों का समर्थन करने के लिए मुख्यमंत्री को धन्यवाद दिया था और कहा था कि वह मुख्यमंत्री के साथ अपनी बातचीत के बारे में विदेश मंत्री और प्रधानमंत्री को रिपोर्ट करेंगे.

    इंदिरा गांधी का कनेक्शन
    हालांकि, इस बैठक में करुणानिधि ने विदेश सचिव को अपनी ‘कठिनाई’ के बारे में बताया था कि वह तेल हड़ताल के बारे में जानकारी शेयर किए बिना विपक्ष को विश्वास में नहीं ले सकते. साथ ही उन्हें समझौते को स्वीकार करने की आवश्यकता के बारे में समझा नहीं सकते. सीएम जानना चाहते थे कि क्या तत्कालीन पीएम इंदिरा गांधी ने विपक्ष को मना लिया है. दस्तावेज़ों से पता चलता है, “विदेश सचिव ने कहा, उनकी जानकारी के अनुसार, प्रस्ताव केवल एक या दो वरिष्ठ कैबिनेट मंत्रियों को ही पता था और शायद प्रधानमंत्री विपक्ष के साथ इस पर चर्चा करने से पहले तमिलनाडु के मुख्यमंत्री के विचार जानना चाहेंगे.”

    मुख्यमंत्री ने यह भी जानना चाहा कि क्या कच्चातिवु को लेकर श्रीलंका में कोई सामूहिक उन्माद पैदा हो गया है. दस्तावेजों से पता चलता है कि “विदेश सचिव ने कहा कि भारत के विपरीत, श्रीलंका में नियंत्रित प्रेस इस विषय पर जनता की भावना को भड़का सकती है और समाधान प्राप्त करना कठिन बना सकती है.” दस्तावेजों के अनुसार विदेश सचिव ने यह भी कहा कि भारतीय पक्ष ने विभिन्न सुझाव दिए हैं – जैसे कॉन्डोमिनियम, द्वीप को काटने वाली एक रेखा और द्वीप को पार करने वाली एक रेखा. विदेश सचिव ने सीएम से कहा, “लेकिन इनमें से कुछ भी श्रीलंका को स्वीकार्य नहीं है.” एक स्तर पर, तमिलनाडु के मुख्य सचिव ने सुझाव दिया कि राज्य में व्याप्त मजबूत भावनाएं केंद्र सरकार की सौदेबाजी की स्थिति को मजबूत करने में मदद कर सकती हैं.

    दस्तावेज़ों में कहा गया है, “विदेश सचिव ने कहा कि इसे नज़रअंदाज़ नहीं किया गया है लेकिन जाहिर तौर पर इसका श्रीलंकाई पक्ष पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा है.” दिलचस्प बात यह है कि केंद्र के तत्कालीन अटॉर्नी जनरल एमसी सीतलवाड़ ने 19 अक्टूबर, 1958 को केंद्र को अपनी राय में कहा था: “…ऐसा प्रतीत होता है कि संतुलन इस निष्कर्ष के पक्ष में है कि द्वीप की संप्रभुता भारत में थी और है.”