Tag: छठ या सूर्येउपासना मुख्यतः निसर्ग सूर्य की उपासना है। छठ मूल रूप से बिहार

  • छठ या सूर्येउपासना मुख्यतः निसर्ग सूर्य की उपासना है। छठ मूल रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र का पर्व है।

    छठ या सूर्येउपासना मुख्यतः निसर्ग सूर्य की उपासना है। छठ मूल रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र का पर्व है।

    रायपुर 31 अक्टूबर 2022/

    छठ या सूर्येउपासना मुख्यतः निसर्ग सूर्य की उपासना है। छठ मूल रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र का पर्व है। ये पूरा इलाका वहीं है, जहाँ गौतम बुद्ध घूमा करते थे। छठ मूल रूप से मनौती का पर्व है। मनौती के लिए ही बौद्ध धर्म में मनौती स्तूप बनाए जाते थे। छठ घाट पर बनी छठ की वेदी मनौती स्तूप से मेल खाती है। बिहार के सारण क्षेत्र में छठ – वेदी को सिरसौता कहा जाता है। इस सिरसौते का आकार – प्रकार ठीक वैसा ही होता है, जैसा कि नालंदा, वैशाली समेत अनेक बौद्ध- स्थलों पर बने मनौती स्तूप का होता है। आश्चर्यजनक रूप से छठ के प्रसाद के रूप में जो ठेकुए या अघरवटा बनाए जाते हैं, उस पर पीपल – पाँत और धम्म चक्र की छाप होती है।


    छठ हर हाल में  ईश्वर भगवान काल्पनिक  देवी देवता और मध्यस्थता करने वाले पुरोहित पुजारी पंडित विहीन श्रमण पर्व है।इस प्रकार यह ईश्वर के साथ भी और ईश्वर के बाद भी के सिद्धान्त पर आधारित नैसर्गिक प्रकृति पूजा का समन/ श्रमण मूलनिवासी बौद्ध संस्कृति का व्रत है।

    INTRODUCTION-

    समाज ही वह चमन है जिसमें मानवीय संस्कारो संस्कृति की पुष्प खिलते है। जिस कारण भारतीय समाज प्राचीन काल से ही उत्सव पर्व प्रेमी रूप में सांस्कृतिक मूल्यों का विकास करता रहा है। इस प्रकार
    भरतीय श्रमण कोइतुर मुलनिवासी लोक परंपरा के संदर्भ में पर्व पावनता का ,उत्सव उमंग का एवं त्योहार त्याग, तितिक्षा और तत्परता का प्रतीक रही है। मूलनिवासी भातीय सामाजिक व्यवस्था में श्रम, साहस त्याग,कुशलता, मिहनत और पुरुषार्थ पर आधारित श्रमण सम्यक सौम्य संस्कृति ही आदी, मूलनिवासी संस्कृति रही है। इसी कारण भारत के सभी पर्व प्रकृति ,पर्यावरण संरक्षण,लोक स्वास्थ्य , कृषक, श्रमण संस्कृति से जुडी रही है।

    मूलत: मूलनिवासी श्रमण परम्परा छठ पूजा का त्योहार प्रकृति मौसम परिर्वतन,कृषक व्यवस्था, उसके कृषक कार्य में सहयोगी पशुओं एवं उनके रक्षको पालको सेवादारो के प्रति प्रेम भाव सहकार भाईचारे और सम्मान का पर्व रही है। भारतीय संस्कृति में धर्म परम्परा मान्यताओं का प्रमुख स्थान है । कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से सप्तमी तिथि की सुबह तक मनाया जाने वाला षष्ठी पर्व बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश एवं अन्य राज्यों में बसे लाखों लोगों की ब्रह्याण्ड को आलोकित और ओजस्वी बनाने वाले सूर्येउपासना रूपी नैसर्गिक आस्था का महान पर्व है । इस पर्व में षष्ठी को जहाँ अस्ताचल गामी सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है, वहीं सप्तमी की सुबह उद्याचल गामी मार्तण्ड को अर्घ्य देकर इस पर्व का उद्यापन और समाप्ति होता है।
    इस पर्व को धर्म भक्ति,श्रद्धा, आस्था समर्पण और भावना की परम्परा से इसीलिए जोड़ा जाता है ताकि प्रकृति के इस योगदान सहकारी भाव, स्वरूप रूप से मानव समाज जुड़े रहे और उसकी अमूल्य धरोहरों को समझे जिनसे ही आदमी का जीवन और अस्तित्व है।

    इस लेख में छठ पर्व की उत्पति से संबंधित विभिन्न पक्षो संदर्भ पर एवं बौद्ध परंपरा के रूप में छठ पर्व का विस्तृत रूप से प्रकाश डालने की कोशिश किया गया है। ताकी इस प्राकृतिक त्योहार की मौलिक श्रमण बौद्ध स्वरूप उभर सके जिससे भारतीय समाज मे फैली अंधविश्वास और पाखंड से निजात पाते हुए सामाजिक सरोकार भाईचारे बंधुत्व और प्रकृति के प्रति मानवीय उत्तरदायित्व का निर्वाह किया जा सके।

    *भारत मे पर्व की उत्पत्ति एवम ऐतिहासिक पृष्ठभूमि*

    अदिमानव का का जीवन अनेक प्राकृतिक सामाजिक भौगोलिक समस्यायों , कष्टों और विपदाओं से भरा हुआ था। वह भाग दौड़ की जिंदगी मे दिन-रात अपने जीवन की समस्यायों कष्टो और पीड़ा का समाधान ढूंढने में जुटा रहता था । ताकि उसकी मानवीय अस्तित्व की रक्षा हो सके। इसी आशा और निराशा के क्षणों में उसका मन व्याकुल दुखमय बना रहता था । इस बिविधतावादी समस्याओं की सामाजिक और मनोवैज्ञानिक समाधान के रूप में मूलनिवासी श्रमण मानवसमाज ने पर्व उत्सव और त्योहार का अबलम्बन प्राप्त किया। पर्वो और त्योहारो की शृंखला आदिकाल से सभ्य मानव समाज तक अबाध रूप से चलती रही। जिस कारण आज आधुनिक भारतीय समाजिक व्यवस्था में ऐसे ही क्षणों में सूर्य सष्ठी जैसे पर्व उसके जीवन में सूर्य की ऊर्जा और साहस के रूप में खुशियां भाईचारे सदभाव सज्जनता साहस सत्कर्म और जीवन मे आशा का संचार करते हैं।
    उपरोक्त प्रस्तावना के आधार पर कहा जा सकता है कि होली दीवाली, दियारी मौलिक रूप से एक श्रमण मुलननिवासी पर्व रहे है। प्रकृति के सूर्य की किरणें पेड़ पौधों को ऊर्जा देती है फिर उसी पेड़ को फलों सब्जियों की खाकर हम मानव समाज ऊर्जावान होते है इसलिए हम सब प्रकृति के रूप है ।सूर्य चन्द्र जल अग्नि पवन सब प्रकृति है इसलिए सूर्य को प्रकृति का साक्षात ऊर्जा स्रोत मानकर उसे लाभ प्राप्त किया जाता है।
    लेकिन आधुनिक काल मे मुलननिवासी पर्व त्योहारो के मौलिक स्वरूप को ब्राह्मणीकरण करके रूपांतरित कर दिया गया है। लेकिन फिर भी इसके मौलिक स्वरूप में बहुत परिवर्तन नही आया है। इस पर्व की सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें किसी पुरोहित, तंत्र -मंत्र, कर्मकांड आदि का कोई महत्व नहीं है। इसमें किसी काल्पनिक भगवान देवी देवता की उपासना नहीं है ,बल्कि प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने वाले नैसर्गिक देवता सूर्य को ही नैसर्गिक सत्ता मान लिया गया है। सभी व्रत साक्षात सूर्य, ऊर्जा के प्रमाणिक स्रौत, की उपासना साधना से जुड़ी है। इसमें एक ही साथ कृषि, पशु, जल एवं ऊर्जा के मुख्य स्रौत सूर्य को महत्व दिया जाता है।जो शास्वत और वैज्ञानिक रूप से सत्य है ।

    खेती में उपजाने वाले हर एक दाने के लिए प्राकृतिक पंचतत्व (वायु, मिटटी, पानी, अग्नि, आकाश) की कृपा समझा जाने लगा। जब भी कोई नयी फसल पकती उसे पहले प्रकृति शक्ति फड़ापेन को ही समर्पित किया जाता था. उसके बाद उस फसल में सहयोग देने वाले पशुओं को कुछ हिस्सा दिया जाता है.

    भारत की कृषि व्यवस्था में फसलों को दो प्रमुख समूहों में बांटा गया है, पहला, उन्हारी (रबी) की फ़सल और दूसरा, सियारी (खरीफ) की फ़सल। वंजी (धान) सियारी की मुख्य फ़सल होती है इसलिए पूरे सियारी फ़सल(धान, उडद, जिमीकन्द, सिंघाड़ा, गन्ना इत्यादि) के स्वागत और कुदरत को समर्पित करने के लिए ये पर्व मनाया जाता है, इसलिए इसे सियारी पर्व ,नवा खाई भी कहते हैं। धीरे धीरे अन्य संस्कृतियों के लोगों द्वारा इस पर्व का स्वरूप पूर्ण-रूपेण बदल दिया गया और आज पूरा देश इस त्योहार को दीपावली या दीवाली के तुरंत बाद सूर्येउपासना के पर्व छठ पूजा के नाम से मनाता है।।

    *भारत मे श्रमण छ्ठ पूजा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि*

    ​ प्राचीन बौद्ध काल में विहार/बिहार का मगध देश बहुत सुखी और समृद्ध देश था।
    पाटलिपुत्र की धरती , चन्द्रगुप्त मौर्य की धरती और भगवान बुद्ध की धरती रही है। बौद्ध इतिहास में एक पर्व ‘दीपदानोत्सव’ नाम से जाना जाता था। यह एक बौद्ध पर्व था जिसका वर्णन तृतीय शती ईसवी के उत्तर भारतीय बौद्ध ग्रन्थ ‘अशोकावदन’ तथा पांचवी शती ईस्वी के सिंहली बौद्ध ग्रन्थ ‘महावंश’ में प्राप्त होता है।
    वहाँ वर्ष में दो फसल के सृजन का अच्छा प्राकृतिक वातावरण उपलब्ध है। वहाँ साल में बरसात’ के बाद नवम्बर-दिसम्बर जनवरी में थोड़ा अच्छा वातावरण होने पर रबी फसल अच्छी तरह से होती है। छठ पर्व की पुजा का आधार अच्छी फसल मान कर फसलोत्पादन के रूप में करते हैं। जैसा कि सभी अवगत है कि सम्पूर्ण कृषि सामाजिक व्यवस्था में जिस वर्ष फसल अच्छी ।मात्रा में होती ही उस साल सभी त्योहार भव्य और अच्छी तरह मनाई जाती है। ठीक उसी तरह अच्छे फसल के खुशी में छठ माइ की पुजा अच्छी तरह मनाई जाती है। अच्छे फसल के लिए कार्तिक महीना में खरीब फसल के रूप में छठ पुजा और रबी फसल अच्छी होगी तब चैत महीने की रबी फसल की छठ पूजा मनाते हैं।​
    ​बंगाल (कलकत्ता) में उत्तर भारत के लोग गंगा के किनारे छठ माई कीे पुजा करते हैं।

    छठ पर्व का इतिहास कब का है इस बात का तो दावा नहीं किया जा सकता है।लेकिन यह *कुषाणकाल से पहले का मनाया जाने वाला पर्व है*।कुषाण काल के बाद ही कुषाण राजाओं द्वारा बुद्ध की मूर्तियों का निर्माण किया जाना प्रारंभ हुआ जिसमे बुद्ध की माता का संदर्भ छठी मईया के रूप में इस पर्व में सूर्य पूजा के साथ जुड़ गई।

    इसमें सूर्य और छठी मईया दोनों की पूजा की जाती है। चूंकी छठी मईया के नाम पर इस पर्व का नाम है इसलिए यह कहा जा सकता है कि सूर्य पूजा छठ पर्व में बाद में आई।
    जैसा कि माना जाता है कि कुषाण काल के राजा कनिष्क के समय में *‘मग’ लोग सूर्य की मूर्ति लाए*, *जो मूर्ति ‘मग’ लेकर आए वो घुटने तक जूता पहने हुए थी क्योंकि कुषाण काल में राजा भी घुटनों तक जूता पहनते थे*। क्योंकि *किसी भी सभ्यता संस्कृति के परंपरा उसके सामाजिक, सांस्कृतिक,राजनीतिक, आर्थिक और धार्मिक व्यवस्था के प्रतीक होते है*। *वर्तमान में बिहार के औरंगाबाद जिलें में जो सूर्य मंदिर है उसमें भी सूर्य की मूर्ति घुटनों तक जूता पहने हुए है। यह परम्परा भारत में कुषाण काल में मग लेकर आए (मग लोग ईरान से आए और ईरान में सूर्य पूजा ( सूर्यवशी आर्य) की मान्यता काफी है) और उन्हीं लोगों ने सूर्य की एक विशेष प्रकार की पूजा चलाई*।

    *वैदिक मतों या आर्यो के मत पितृसत्तात्मक परंपरा में में सूरज को पुरुष देवता माना जाता है।और चंद्रमा को स्त्री देवता*। *लेकिन मूलनिवासी द्रबिड़ो अनार्यो के मातृसत्तात्मक व्यवस्था के अनुसार सूरज महिला देवता और चंद्रमा पुरुष देवता माने जाते है*। *उनका विश्वास था कि सूरज की कृपा से समुद्र के पानी वाष्प के रूप में ऊपर उठता है ऊपर उठकर बादल बनकर वर्षा होती है, इसलिए उन क्षेत्रों में खरीब(धान) की फसले अच्छी होती रही है। फिर सूर्य की कृपा से सर्दियों के समय में अत्यधिक शीत की बरसा होती है तो चैत माह में रबी ( गेहू)फसल अच्छी होती है*।
    *
    यह कहा गया कि छठ माई के पूजा में सूरज को पानी में खड़े होकर पूजन सामग्री (सूपली में) में रखकर अर्ध्य स्वरूप अर्पण करते हैं। विभिन्न प्रकार के सामान जैसे – गेहू से बना ठेकुआ, चावल के लड्डु वताबी नेबु (गागल), नारियल, गन्ना, पानी फल (सिंधाड़ा) ,मूली ,शकरकंद, सिजनल फल, अमरूद,सेव्, अनार, संतरा केला – अन्नादि। ये सब अनार्य के समय का प्रचलन है। इससे समझा जाता है कि आर्य वैदिक सभ्यता के साथ कोई संबंध नहीं है।
    बौद्ध काल मे मगध शव्द एक खास प्रकार के विचार और संस्कृति के लिए प्रयोग होता था। जिसमें पटना गया नालंदा मगध के अंतर्गत आते थे। यहाँ छठ पूजा जल में खड़े होकर उगते और अस्त होते सूर्य की ओर देखते हुए छठ पुजा की जाती है। छठ पुजा न होने पर प्रकृति कुपित हो बाधित कर सकती है, यह धारणा है। छठ माई के रूप में सूर्य के असंतुष्ट हो तो कई प्राकृतिक खतरे बन जाएंगे, प्रकृति रुष्ट हो जाएगी ।
    यह छठी माई भक्ति भय जनित भक्ति है। पूजा से ममत्व उमड़ेगा माई के दिल में और भला होगा सबका।
    सर्वप्रथम छठ पूजा मगध क्षेत्र में आरम्भ हुआ और क्रमशःअन्य क्षेत्रो में फैलता गया।
    इस प्रकार छठ पूजा प्रकृति पूजा अर्थात जड़ पूजा है जो भय मानसिकता से प्रेरित होकर प्राचीन काल में लोग अपने मानव समाज से शक्तिशाली जड़सत्ता को पूजते थे। प्रकृति पूजा मन को स्थूल की ओर ले जाता है, जबकि परमचैतन्य अर्थात स्वयं अंतःकरण की साधना मन विचार चेतना को सूक्ष्म से सुक्षतम की ओर ले जाता है। प्रकृति पूजा से व्यष्टि या समष्टि का आध्यात्मिक उन्नति नही हो सकता है।आध्यत्मिक उन्नति के लिए एक स्वयं की आत्मिक चेतना , ऊर्जा सत्ता का अपने भीतर अनुभूति करना होगा जो भक्ति के द्वारा ही सम्भव है।

    *छठ पर्व एक ऐतिहासिक श्रमण बौद्ध परम्परा*
    ( *छठपर्व- ईश्वर के साथ भी ईश्वर के बाद भी*)

    इस आलेख के इस भाग में में छठपर्व की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के बाद इसकी विभिन्न गतिविधियों का मौलिक विश्लेषण कर इसके बौद्ध परंपरा के रूप में स्थापित करने की कोशिश किया गया है।

    *प्राचीन बौद्ध छठ पर्व की भौगोलिक क्षेत्र*-

    छठ पर्व *कार्तिक शुक्ल पक्ष/उजियारी पाख के चतुर्थी* से लेकर षष्ठी* तक मनाया जाने वाला एक बौद्ध पर्व है। यह पर्व मुख्य रूप से पूर्वी भारत के बिहार, झारखंड पूर्वी यूपी और नेपाल के तराई क्षेत्रों में मनाया जाता है। यह पर्व आधुनिक भारत मे मुख्य रूप से हिंदु धर्म के लोगों में मुख्य पर्व के तौर पर मनाया जाता है। इसमें छठ मईया और सूर्य की पूजा की जाती है जिसे सूर्येउपासना सूर्यषष्ठी व्रत भी कहते है। भाषा वैज्ञानिक पुरातात्विक विशेषज्ञ डॉ राजेंद्र प्रसाद सिंह ने इस पर्व के संबंध में अपनी राय रखी और छठ के नए पहलुओं से अवगत कराया। उनके अनुसार
    “*छठ प्राकृत भाषा का शब्द है*। जो प्राकृत के षट शव्द से बना है जिसका अर्थ छह या छह की संख्या का प्रतीक है। छठ के संबंध में सारा ध्यान हमारा जो जाता है वो इस बात पर जाता है कि छठ उन्हीं इलाकों में मनाया जाता है जहाँ गौतम बुद्ध भ्रमण करते थे ,समतामूलक बंधुत्व मूलक समाज बनाने के लिए जिन–जिन इलाकों में उन्होंने भ्रमण कर अपने उपदेश दिए। इसकारण मुख्यत: छठ की परम्परा बिहार, पूर्वी यूपी, नेपाल की तराई में मानाया जाता है। नेपाल की तराई, बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के क्षेत्रों में ही गौतम बुद्ध प्राय: घूमा करते थे*। यह कोई मामूली स्थापना और तर्क नहीं है कि छठ केवल उन्हीं क्षेत्रों में मनाया जाता है जहाँ बुद्ध का अपना इलाका था, जहाँ से उनका लगाव था। यह स्थापना गणेश पूजा, दूर्गा पूजा, ओणम, नवाखाई , हरेली जैसी हरेक पर्व त्योहार और परंपरा के साथ लागू होता है। जिसमे पर्व का उदगम किसी खास भौगोलिक क्षेत्र संस्कृति से होता है लेकिन समयानुसार आधुनिकता संचार के साधनों यातायात व्यवसाय रोजगार की विविधता के कारण सर्वेभौमिक रूप से वैश्विक स्तर पर विस्तृत हो जाता है।
    आज आधुनिक काल मे भूमंडलीकरण औद्योगिकरण शहरीकरण के कारण परम्पराओ त्योहारो का भी वृहत विस्तार हुआ है। जिस कारण बिहार से लेकर उत्तर प्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश ,बंगाल , महाराष्ट्र आदि राज्यों तक ही नही बल्कि नेपाल बंगलादेश अमेरिका इंग्लैंड में प्रबजन के कारण विस्तार हुआ है। जीओ

    *छठ पर्व की महत्वपूर्ण मौलिक विशेषता*

    1)छट पूजा याने सूरज या सूर्य की पूजा होती है, जिसे सूर्य देव की पूजा कहते है।
    2) इस पूजा में सूर्य देव के रूप में अमिताभ बुद्ध के साथ छठ माता याने वास्तव में दुर्गा के रूप में बसुधारा बुद्द की पूजा होती है।
    3) इस पूजा में उगते हुवे और डूबते हुवे दोनों समय के सूर्य की पूजा होती है

    अमित नरवाडे, बुद्धिस्ट इंटरनेशनल नेटवर्क के अनुसार छट पूजा को सही, ऐतिहासिक और तथ्यात्मक परिपेक्ष में देखे तो, सूर्य देव की पूजा करना यह एक उपासना की प्रतीकात्मक रूप है। ब्रह्मण्ड के ऊर्जा का एक मात्र स्रोत सूर्य एक प्रतीक है। डॉ बाबासाहेब अम्बेडकर के बुद्धा एंड धम्म में बौद्ध धम्म में बुद्ध को अमिताभ कहा गया है। अमिताभ याने जिसकी प्रतिभा (ताभ) ज्ञान प्रज्ञा बुध्दिमता असिम अथाह और अमिट हो। जिसकी प्रतिभा बुद्धि प्रज्ञा सूर्य के प्रतिभा ओज तेज प्रखरता के समान हो। बौद्ध ग्रंथों में
    बुद्ध को ही शाक्य सूर्य और बाद में सूर्य देव कहा गया और माना भी गया है। आज भारतीय लोग छठपर्व की पूजा में सूर्य को पूजते है, हकीकत में अमिताभ बुद्ध को ही सूर्येउपासना के सूर्य रूप में पूजने कि ऐतिहासिक परंपरा है।

    भारत मे बुद्ध के परिनिब्बान ( परिनिर्वाण) के पश्चात मौर्य काल और उसके बाद भी भारत मे सूर्य मंदिरों का निर्माण किया गया। जिस में प्रमुख रूप में,
    १) ओडिसा का कोणार्क सूर्य मंदिर
    २) गुजरात का मोढेरा सूर्य मंदिर
    ३) कश्मीर का मार्तंड सूर्य मंदिर
    यह सारे मंदिर कलाशास्त्र और पुरातत्व के दृष्टिकोण से बुद्ध विहार,चैत्य और स्तुप है, जिसमे सभी मंदिर स्तूप ज्यादातर नागर शैली के माने जाते है है।
    इस मंदिरों के ऊपर कई बुद्धकी, बोधिसत्व पद्मपाणि, वज्रपाणि, तथा महिला बोद्धिसत्व में मंजुश्री, वासुधारा और महामाया की प्रतिमाये चिन्हित है।
    कई सौ वर्षों के बाद बोधिसत्व पद्मपाणी को श्रमण के विरोधी ब्राह्मणों ने विष्णु और वज्रपाणि को शिव के रूप में प्रसारित और स्थापित कर सम्पूर्ण श्रमण बौद्ध इतिहास और परंपरा को मानो बदल के ही रख दिया।

    आधुनिक काल मे बौद्ध परंपरा के पद्मपाणि को पहचानने का एक तरीका है, वह यह है कि अलंकार युक्त पुरुष रूप में, जिस के हाथ मे कमल का फूल उसके डंडी के साथ हो वह पद्मपाणि की मूर्ति होती है।

    जिस पुरुष रूप अलंकारित मूर्ति के हाथ मे वज्र यह हत्यार होता है वह वज्रपाणि की मूर्ति होती है।
    छठपर्व पूजा में छठ माता को भी पूजने की परंपरा है। साथियो यह छठ माता की पूजा याने ब्राह्मणी दुर्गा के रूप में मूलतः वसुधारा बुद्ध ,तारादेवी की पूजा है।
    बौद्ध परम्परा के तांत्रिक वज्रयानी बुद्धिज़्म में दुर्गा यह बोद्धिसत्व महिला याने बुद्धिस्ट गॉडेस है जिसे वज्रयानी बुद्धिज़्म में वासुधारा भी कहा गया है। इसलिए संभवतः यह बुद्ध के माता महामाया का भी प्रतीक हो सकता है। जिसे बाद के काल मे ब्राह्मणों द्वारा हिन्दू धर्म मे दुर्गा और लक्ष्मी के रूप मे स्थापित कर पूजा जाने लगा।
    इस पर्व में उगते और डूबते (sun rise and sun set) दोनों समय सूर्येउपासना और पूजा का संबंध है जो संभवतः बुद्ध के जन्म और परिनिब्बाण के प्रतीक रूप में प्रचलित हुआ है। हम सभी जानते है गौतम बुद्ध का जन्म और परीनिब्बाण दोनों पूर्णिमा के दिन ही हुवा है ।

    आज वर्तमान में छठपर्व पूजा का वास्तविक इतिहास, उसकी परंपरा और उसके सांस्कृतिक संबंधों के बारे में बहुजन मूलनिवासी समाज अनजान और अनभिज्ञ है क्योंकि ब्राह्मण साहित्यकारों ने पुराण, कथा और mythology से लोगो को संभ्रमित किया है। जिस कारण लोग सही और वास्तविक इतिहास नही जानते है। लेकिन इस विश्लेषण के माध्यम से बौद्ध संस्कृति के रहस्योद्घाटन किया गया है ताकि समाज सच्चाई को जानकर अपनी मौलिक ऐतिहासिक परंपरा से जुड़ सके।

    *छठपर्व की विभिन्न गतिविधियों में बौद्ध परंपरा*-

    भगवान गौतम बुद्ध के बाद भी भारत मे जबतक पालि भाषा रहा है तब तक व्रत और पर्व शब्द का उदय नही हुआ था।
    उस समय पाली भाषा मे *विरत और पब्ब* शब्द का प्रचलन था। जिसमें *विरत* का प्रयोग मानव के मानवीय, चारित्रिक स्वाभाविक राग द्वेष कामना वासना, लोभ,मोह, व्यभिचार पाप, हिंसा से दूर रहने हेतु और *पब्ब*/पर्व* *का प्रयोग राग द्वेष को दूर करने वाले आयोजन समारोह घटना वातावरण से था*। इसी कारण समन बौद्ध परंपरा में मानवीय दोषो से विरत मुक्त रहने के लिए कुछ अनुष्ठान करने की परंपरा प्रचलित हुई। जिसमे
    छठपर्व चतुर्थी से सप्तमी तक मनाई जाती है।इसमें प्रथम दिन चतुर्थी तिथि को मनाए जाने वाले परम्परा को नहाय-खाय से आरंभ करते है। क्योंकि बौद्ध परंपरा में शारिरिक मानसिक चित शुद्धि से चेतना की शुद्धि का उपक्रम अपनाने की प्रक्रिया रही है। यह व्रत तन की शुद्धि और मन की शुद्धि के लिए है, जिससे संतान के मन विचारों में शुद्धता आए और वह स्वस्थ रहे, सूर्य-सम ओजस्वी-तेजस्वी प्रगतिशील प्रज्ञावान बना रहे।

    नहाय-खाय के दूसरे दिन अर्थात् पञ्चमी तिथि को मनाए जाने वाले *खरना व्रत* के अर्थ को लेकर अलग-अलग कयास लगाए जाते हैं, जबकि *भषा-विज्ञान के आधार पर यह स्पष्ट है कि यह खरा (शुद्ध) ,निर्मल परिष्कृत ,विशुद्ध होने की क्रिया है*। जैसे पढ़ से पढ़ना है, लिख से लिखना है, वैसे ही खर से खरना है । खरना अर्थात् शारिरिक,आध्यात्मिक, मनोवैज्ञानिक व्रत, उपचार द्वारा अंतःकरण को शुद्धकरने की क्रिया खरनाहै। अर्थात साधना की उच्चतम स्तर की प्राप्ति के लिए तन मन चित से निर्मल होकर तैयार होने की आध्यात्मिक प्रक्रिया है। जहाँ तक इसके धार्मिक मनोवैज्ञानिक पक्ष की बात है तो हम जानते हैं कि भारतीय श्रमण संस्कृति में साधना का प्रारंभ श्रद्धा और विश्वास से होना माना गया है। जिसमें शुद्धिकरण प्रथम सोपान है। *ईसके उपरांत महिलाएं सूर्येउपासना की कड़ी में प्रथम दिवस की अर्घ्य देने के लिए शारिरिक और मानसिक रूप से योग्य और सक्षम हो जाती है*।

    *अस्ताचल एवं उदयमान सूर्य का अर्घ्य*
    इस पर्व पर महिलाएं अस्ताचल सूर्य एवं उदीयमान सूर्य को नदी तालाब के पानी में खड़ी होकर हाथ मे सुप में विभिन्न फल और पकवान धारण कर अर्घ्य देती है। यही एकमात्र पर्व है जिसमें अस्ताचल सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है।
    छठ पर्व एक ओर डूबते सूर्य की आराधना का पर्व है। डूबता सूर्य इतिहास होता है, और कोई भी सभ्यता तभी दीर्घजीवी होती है जब वह अपने इतिहास को को याद करके सीखे। बाबा साहेब अम्बेडकर ने इसलिए ही कहे है कि जो अपना इतिहास नही जानता वह इतिहास निर्माण भी नही कर सकता है। अपने इतिहास के समस्त योद्धाओं मौलिक मूल्यों त्योहारो को पूजे और इतिहास में अपने विरुद्ध हुए सारे आक्रमणों और षड्यंत्रों को याद रखे।
    दूसरी ओर छठ उगते सूर्य की आराधना का पर्व है। उगता सूर्य मानव सभ्यता का भविष्य होता है, और किसी भी सभ्यता के यशश्वी होने के लिए आवश्यक है कि वह अपने भविष्य को पूजा जैसी श्रद्धा और निष्ठा से सँवारे। हमारी आज की मूलनिवासी श्रमण पीढ़ी यही करने में चूक रही है, पर उसे यह करना ही होगा। यही छठ व्रत का मूल भाव है।

    *छठपर्व की पूजा सामग्री में बौद्ध इतिहास*

    इस पर्व का जो प्रसाद पकवान है उसमें सर्वाधिक प्रमुख है अगरौठा ( अर्घ्य की पकवान) जिसका संबंध अर्घ /अरग/अर्घ्य देने से है। अगरौठा की जो आकृति है, जिसका ठप्पा ,छाप ठेकुए/ठोकोउया( आटे गुड़ से ठोककर बिना बेले हुए निर्मित पकवान) पर मारा जाता है जिसमे आज भी उसमें दो प्रकार के चिन्ह मिलते हैं। पहला चिन्ह मिलता है पीपल के पत्ते का और दूसरा चिन्ह मिलता है बुद्ध के अष्टचक्र के चक्र का। पीपल बुद्ध के बिहार में बोधज्ञान (बोधगया) के बोध,ज्ञान प्राप्ति का प्रतीक है तो दूसरी ओर अष्टचक्र अष्टांगिक मार्गे का प्रतीक है*।यह कोई मामूली तर्के और प्रमाण नहीं है ।क्योंकि श्रमण मूलनिवासी समाज और हाशिए का इतिहास ऐसे ही त्योहारो प्रतीकों उत्सवों लोककथाओं जीवन के मानवीय मूल्यों में लिखा गया है जो कहीं पत्थरों पर, कहीं दीवार में, कहीं ठेकुए पर भी आज भी जीवित है । पीपल के पत्ते और चक्र का चिन्ह दोनों ही छठ को बौद्ध परम्परा से जोड़ते हैं।
    छठ का नामकरण मूलत: छठी मईया पर है। छठी मईया श्रमण संस्कृति की मातृसत्तात्मक व्यवस्था के कारण ही इस पर्व का नाम छठ है। बाँस से बने सूप का प्रयोग इसमें बहुत ही महत्त्व रखता है। ध्यान दें कि बाँस को वंशवृद्धि का प्रतीक माना गया है, और भाषा विज्ञान के अनुसार दोनों शब्दों का मूल एक ही है।

    *बौद्ध छठपर्व के बौद्ध स्वरूप की पुरातात्विक प्रमाण*-
    प्रसिद्ध इतिहासकार पुरातत्ववेता एवं भाषावैज्ञानिक डॉ राजेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसार
    बौद्ध पर्व छठ घाट की सफाई में बौद्ध स्थल का पुरातात्विक प्रमाण प्राप्त हुआ है।
    बिहार के जिला बाँका के भदरिया गाँव में चाँदन नदी की धारा में छठ घाट की सफाई के दौरान प्राचीन भवनों के अवशेष मिले हैं।
    आज के भदरिया गाँव का उल्लेख बौद्ध ग्रंथों में भद्दिय गाँव के रूप में है ( अंगुत्तर निकाय) ।इसके साथ ही भद्दिय गाँव का उल्लेख बाबासाहेब डाॅ. अंबेडकर, राहुल सांकृत्यायन और हवलदार त्रिपाठी ने भी किया है। कभी गोतम बुद्ध वैशाली से चारिका करते हुए लगभग 1200 भिक्खुओं को साथ लिए भद्दिय गाँव पधारे थे।
    तब भद्दिय गाँव के एक बड़े श्रेष्ठी मेण्डक हुआ करते थे। मेण्डक ने अपनी पोती विशाखा को बुद्ध के सत्कार में अगवानी के लिए भेजा था, जिन्हें मिगार माता विशाखा कहा जाता है।
    प्राचीन भवन के अवशेष में कई कमरे दिख रहे हैं, ईंटें हाथ से थापकर बनाई गई हैं, फिर पकाई गईं हैं। भदरिया गाँव के लोग पहले से ही मानते रहे हैं कि हमारे गाँव बुद्ध कभी पधारे थे।
    अब बौद्ध पर्व छठ के अवसर पर उन्हें पुरातात्विक सबूत मिले हैं।

    *छठपर्व की सिरसौता का बौद्ध परम्परा से तुलना*-

    छठ के नाम पर नए चरित्र को गढ़ा गया है उसकी मूर्ति भी अब कुछ लोग बैठा रहे है। जबकि हजारों साल से छठ को तालाब पोखरे नदी के किनारे बने बौद्ध स्तूपों पर महिलाए जाकर प्राकृतिक फल फूल चढ़ा कर सूरज को अर्घ देकर मनाती थी, यह पर्व दीप दान उत्सव जिसे बदल कर दीपावली किया गया जो बुद्ध से जुड़ा था के बाद मनाया जाता रहा है। साथ में यह पर्व छठ यानि छठी यानि छठवें से जुड़ा है, तो महिलाओ का मानना था की वो व्रत उपवास रहेंगी तो उनको गौतम बुद्ध की तरह यश कीर्ति वाला पुत्र मिलेगा । जैसा कि मालूम है कि गौतम बुद्ध की माता लुम्बिनी का निर्वाण यानी देहांत गौतम बुद्ध के जन्म के छठवें दिन हो गया था तो यह महिलाएं उस लिए उपवास रहती थी और कामना करती थी कि उन्हें बुद्ध के समान संतान की प्राप्ति हो । फिर हजारों साल में बौद्ध सभ्यता को मिटाने की कोशिश आर्य ब्राह्मणवादी लोगो ने किया पर मौलिक उत्सव नही मिटाए जा सकते थे तो उसका रूप बदल दिया और कई काल्पनिक मनगढंत झूठी कहानियां फैलाते गए ।

    प्रसिद्ध इतिहासकार पुरातत्ववेता एवं भाषावैज्ञानिक डॉ राजेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसाप्रसिद्ध इतिहासकार पुरातत्ववेता एवं भाषावैज्ञानिक डॉ राजेन्द्र प्रसाद सिंह के अनुसार
    “इस पर्व में लोग नदी तालाब के किनारे अर्घ्य देने, कोसी भरने के लिए छठघाट पर खासतौर से दक्षिण बिहार में जो मिट्टी ,गन्ने के वेदी /सिरसौता बनाते हैं वो बौद्ध स्तूप के आकार का होता है। उत्तर बिहार में उस वेदी को सिरसौता कहा जाता है, सिरसौता का जो आकार–प्रकार है वो बिल्कुल बौद्ध धम्म के मनौती स्तूप से मिलता–जुलता है। ऐतिहासिक दृष्टिकोण से देखी जाय तो बौद्ध काल मे जीवन की खुशहाली के लिए, संतान उतपत्ति के लिए मन्नते रखने, प्रकृति से माँगने हेतु मणौति रखने की परंपरा का प्रमाण मिलता है। और इसी मनोती की पूर्ति उपरांत बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद मनौती स्तूप बनाने का जो आर्ट कला परंपरा है वो आज का नहीं है वो बहुत पुरानी है। यदि बिहार के नालंदा विश्वविद्यालय के खंडहरों को देखेंगे तो वहाँ आपको बहुत सारे बौद्ध काल के मनौती स्तूप मिलेंगे।

    सार रूप में यह कहा जा सकता है कि छठ मूल रूप से बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश और नेपाल के तराई क्षेत्र का पर्व है। ये पूरा इलाका वहीं है, जहाँ गौतम बुद्ध घूमा करते थे। छठ मूल रूप से मनौती का पर्व है। मनौती के लिए ही बौद्ध धर्म में मनौती स्तूप बनाए जाते थे। छठ घाट पर बनी छठ की वेदी मनौती स्तूप से मेल खाती है। बिहार के सारण क्षेत्र में छठ – वेदी को सिरसौता कहा जाता है। इस सिरसौते का आकार – प्रकार ठीक वैसा ही होता है, जैसा कि नालंदा, वैशाली समेत अनेक बौद्ध- स्थलों पर बने मनौती स्तूप का होता है। आश्चर्यजनक रूप से छठ के प्रसाद के रूप में जो *ठेकुए या अघरवटा/अरघौता* बनाए जाते हैं, उस पर पीपल – पाँत और धम्म चक्र की छाप होती है।
    छठ हर हाल में *ईश्वर भगवान काल्पनिक देवी देवता और मध्यस्थता करने वाले पुरोहित पुजारी पंडित विहीन समन संस्कृती,श्रमण पर्व और व्रत है*।
    *छठपर्व का सामाजिक महत्व*। छठ दरअसल जीविकोपार्जन के। लिए माइग्रेटेड समाज के लोगो के लिए वह राहत है जो अपने मुलनिवास से उजड़े हुए लोगों को उनका घर लौटाती है। विस्थापितों को भरोसा दिलाती है कि वे कहीं और स्थापित हो रहे हैं। *उन्हें बताती है कि उनका एक पांव उस जल में है जो कहीं न कहीं किसी छोर पर उनके गांव की सादगी, संस्कार,संस्कृती भाईचारे रुपी नदी में जा मिलता है*। *इस लिहाज से यह धार्मिक पूजा-पाठ से ज़्यादा एक सामाजिक आत्मीयता भाईचारे का त्योहार बन जाता है*। बेशक, हमारे इस सोशल मीडिया युग में सबकुछ तर्क विमर्श की वेदी पर चढ़ाया जाता है तो छठ के भी इससे अछूता रहने की कल्पना नहीं की जा सकती है। यह पूछने वाले निकल सकते हैं कि प्रगतिशील तत्वों को छठ मनाने के कर्मकांड में क्यों पड़ना चाहिए और आधुनिक नारीवादी महिला को छठ का उपवास क्यों रखना चाहिए। लेकिन इस जड़विहीन समाज में सारे तर्क और विमर्श जैसे मनबहलाव के साधन हैं- वे अमूमन किसी सांस्कृतिक मूल्य के निर्माण की ज़रूरत से पैदा होते नहीं दिखते।

    *संलग्न तस्वीरों का विश्लेषण*-

    इसमे अनेक फ़ोटो संलग्न है।
    1 प्रथम फ़ोटो में अर्घ्य देते हुए महिलाओं की तस्वीर है।
    2 दूसरे तस्वीर सिरसौता की है और सिरसौते पर चढ़ाया गया चक्र छाप ठेकुए (पकवान) की है।
    3 तीसरी तस्वीर मनौती स्तूप की है, जो सिरसौते से मेल खाती है।
    4 चौथी तस्वीर एक किताब के पन्ने की है, जिसमें सिरसौता और मनौती स्तूप की तुलना है।
    आखिर में छठ का प्रसाद जिस पर पीपल – पाँत तथा चक्र की छाप है।

    इसलिए मेरा मानना है कि आधुनिक छठ पर्व के पीछे मूलनिवासी श्रमण बौद्ध धम्म की परंपरा छिपी हुई है और इस पर भविष्य में गहन शोध अध्ययन और नए सन्दर्भ के साथ विवेचन करने की जरूरत है”।
    निष्कर्ष-

    उपरोक्त विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि छठपर्व मौलिक रूप से एक श्रमण बौद्ध पर्व है। छठ या सूर्य या प्रकृति की पूजा पूर्ण रूप से बुद्ध की याद में मनाई जाती है, बुद्ध ने कहा है कि हम सब प्रकृति निसर्ग के विभिन्न रूप है । प्रकृति के सूर्य की किरणें पेड़ पौधों को ऊर्जा देती है फिर उसी पेड़ को फलों सब्जियों की खाकर हम मानव समाज ऊर्जावान होते है इसलिए हम सब प्रकृति के रूप है ।सूर्य चन्द्र जल अग्नि सब प्रकृति है इसलिए सूर्य को अर्ध्य दिया जाता है।
    लेकिन आधुनिक काल मे इसके स्वरूप को ब्राह्मणीकरण करके रूपांतरित कर दिया गया है। लेकिन फिर भी इसके मौलिक स्वरूप में बहुत परिवर्तन नही आया है। इस पर्व की सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें किसी पुरोहित, तंत्र -मंत्र, कर्मकांड आदि का कोई महत्व नहीं है। इसमें किसी काल्पनिक भगवान देवी देवता की उपासना नहीं है ,बल्कि प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने वाले नैसर्गिक देवता सूर्य को ही भगवान मान लिया गया है। यह व्रत साक्षात सूर्य, ऊर्जा के प्रमाणिक स्रौत, की उपासना से जुड़ी है। इसमें एक ही साथ कृषि, पशु, जल एवं ऊर्जा के मुख्य स्रौत सूर्य को महत्व दिया जाता है।जो शास्वत और वैज्ञानिक रूप से सत्य है ।

    *दिवाली और छठ फ़सलों की कटाई के बाद की मानव समाज की समृद्धि के त्योहार हैं। आज होली, दिवाली, दसहरा के साथ बहुत सारी भव्य और मिथकीय काल्पनिक कहानियां जुड़ गई हैं, लेकिन छठ ने अपने-आपको ऐसी कथाओं से दूर रखा है। *उसमें पंडित और उसका पतरा नहीं हैं, बस नदी का हिलता हुआ जल है, डूबते और निकलते सूर्यों की कांपती रोशनियां हैं, स्त्रियों का गीला आंचल है, उनके कंठ से फूटते गीत हैं, फल है और सुर्य अर्ध का दौरा है , ठेकुआं है जिसमें स्वाद से ज़्यादा संस्कार और साझेदारी आत्मीयता का सुख है। *होली के अलावा यह दूसरा त्योहार है जिसने बाज़ार की दानवी जकड़ से खुद को बचाए रखा है*। यहां ग़रीबी और सादगी भी किसी अभिमान की तरह खिलती है और घाटों पर सुबह-सुबह तिरते दीए किसी सभ्यता की उम्मीद की तरह दूर तक निकल जाते हैं।

    भारत की मूलनिवासी श्रमण सभ्यता और संस्कृति के इतिहास को मुख्य धारा के मनुवादी विभेदकारी इतिहासकारों ने बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दिया, जिसकी वजह से बहुत सारा प्रामाणिक और मौलिक इतिहास पुस्तकों साहित्यों में दर्ज नहीं है, वो मौखिक, लोक परम्परा प्रचलन लोकगीतों कहानियों मिथको और लोककथाओं में है।
    *ब्राह्मण मनुवादी विचारधारा मानने वाले धर्म के पास ऐसा कुछ भी नहीं था, जिसे संस्कारवान या नैतिकता बौद्धिक कहा जाये। अतः उन्होंने बुद्ध की जातक कथाओं के मूल शिक्षाओं उपदेशो को चुराना नकल करना शुरू किया और ब्राह्मण हिन्दू धर्म का ठप्पा (मुहर) लगाकर बाजार (समाज) में उतार दिया।* इसलिए हमारे मूलनिवासी श्रमण परम्परा रूपी घर मे कोई कब्जा किया है तो घर को तोड़ेंगे छोड़ेंगे नही बल्कि उस घर से कब्जा धारियो को खाली कराकर उसपर अधिकार करके नए संदर्भ के साथ उन उत्सवों त्योहारो को मनाना शुरू करेगे।अन्यथा कब्जा विकृत करने वालो को केवल कोसते रहेंगे तो अंत मे मूलनिवासी श्रमण समाज के पास अपनी संस्कृति विरासत कुछ भी नही बचेगा। इस कारण विकृत रीतिरिवाजों की आलोचना और वैज्ञानिक तर्के की एक सीमा तक ही प्रयोग करने की जरूरत है। क्योकि कोई भी परंपरा संस्कृति के मानक रीतिरिवाज पत्तागोभी(CABBAGE) के पतो के समान होता है जिसे गंदगी कीड़े मकोड़े से मुक्त करने के लिए परत दर परत निकालते जायेगे तो अंत मे कुछ भी शेष नही बचता है।अर्थात विविध धर्म के मान्यतायों रीतिरिवाजों को खंडन मंडन करते रहेंगे तो एक समय ऐसा आएगा कि समाज मे समाजिकता मानवता भाईचारे बंधुत्व सदभाव बढ़ाने के कोई भी सामूहिक आयोजन ही नही बचेगे क्योंकि केवल आधुनिक तर्क विज्ञान के आधार पर किसी भी संस्कृति धर्म मजहव की कोई भी रीतिरिवाज त्योहार मान्यताएं 100% शुद्ध खरा और प्रामाणिक सिद्ध नही होंगे। हमसब छठ पर सोशल मीडिया में बधाइयों, ठेकुआं, अर्घ्य की तस्वीरों तक सीमित न रहें, अपनी प्राचीन समन संस्कृती के मौलिक सांस्कृतिकता का मोल समझें और यह भी देखें कि अपने समाज से, अपनी जड़ों से कटी हुई, मूलत: राजनीतिक लक्ष्यों से प्रेरित तथाकथित धार्मिकता ने समाज में कितना ज़हर पैदा किया है। *निःसंदेह aछठ का ठेकुआ यह ज़हर नहीं काट सकता, लेकिन यह दुख या संतोष बांट सकता है कि हममें से बहुत सारे समन लोगों को इस ज़हर की पहचान है*।
    अतः आज जरूरत है कि निराधार, अमानवीय, अन्यायपूर्ण भेदभावपूर्ण व अविवेकपूर्ण धार्मिक कर्मकांड विश्वासों मान्यताओं रीतिरिवाजों से मुक्ति पायें। आज हमसब को देश काल परिस्थिति के अनुरूप मध्यम मार्ग का अनुसरण करते हुए उचित अनुचित का ख्याल करते हुए विवेकपूर्ण विचार से मानवीय जीवन को खुशहाल समाज को आधुनिक, विश्वाशों मान्यतायों को विवेकपूर्ण , सम्बन्धों को न्यायपूर्ण, जीवन को तनावमुक्त सक्रिय व संतुलित बनायें तभी मानव समाज का भविष्य उज्जवल होगा। *अब विज्ञान की गंगोत्री से वही ज्ञान की धारा है*। *समण संस्कृती काउद्धार करेंगे यह संकल्प हमारा है।