दिल्ली,
बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने अपनी कुछ राजनैतिक जिम्मेदारियां अपने भतीजे और बसपा के राष्ट्रीय को-ऑडिनेटर आकाश आनंद को सौंप कर क्या संदेश दिया है, कोई नहीं जानता। मायावती ने अपने आप को उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड तक समेट कर बाकी राज्यों की जिम्मेदारी आनंद को दे दी है। मायावती के इस फैसले पर नेतागण अपने हिसाब से प्रतिक्रिया दे रहे हैं। कुछ को लगता है कि मायावती ने काफी सोच समझकर बसपा में अपने आप को सीमित किया है। संभवतः वह नहीं चाहती होंगी कि देश जीतने के चक्कर में कहीं उनका मजबूत किला यूपी और उत्तराखंड हाथ से नहीं निकल जाये। जहां उनके लिये हमेशा संभावनाएं बनी रहती हैं। कहा यह जा रहा है कि बहनजी चुनाव की तारीख घोषित होते ही यूपी में अपनी जनसभाएं शुरू कर देंगी। पहले वह मंडलवार सभाएं करेंगी। बीएसपी के लिये मजबूत समझी जाने वाली सीटों पर विशेष तौर पर फोकस रहेगा। मजबूत समझी जाने वाली सीटों के लिये वह जनसभाएं भी ज्यादा करेंगी।
चुनाव की बेला में मायावती ने जो कदम उठाया है उससे बसपा को कितना नफा-नुकसान होगा यह तो समय ही बतायेगा, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि बसपा सुप्रीमो ने जो भी फैसला लिया है, वह काफी सोच समझकर लिया होगा। मायावती एक परिपक्व नेत्री हैं। उन्होंने बसपा को इस बुलंदी तक पहुंचाने में पूरा योगदान दिया था। दलित चिंतक स्वर्गीय कांशीराम की राजनैतिक विरासत को आगे बढ़ाने वाली मायावती की पहचान एक बड़ी नेत्री के रूप में होती है। मायावती पर दलित पूरा विश्वास करते हैं। दलित वोटरों ने कभी भी बहनजी का साथ नहीं छोड़ा जबकि मायावती अपनी सियासी जरूरतों को पूरा करने के लिए अक्सर गैर दलित वोटरों को भी बसपा में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी देती रहीं। बसपा की सियासी प्रयोगशाला से मायावती ने कभी दलित-मुस्लिमों को एक छतरी के नीचे खड़ा किया तो कभी सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय की राजनीति को अमली जामा पहनाया। मायावती ने दलित नेताओं की बड़ी लीडरशिप तैयार की तो कई क्षत्रिय, ब्राह्मण, पिछड़ों और मुस्लिम चेहरों को भी राजनीति में उभरने का पूरा मौका दिया, लेकिन इसका दूसरा पहलू यह भी रहा कि बसपा सुप्रीमो ने भले ही नये नेताओं की ‘फौज’ तैयार की थी, लेकिन यह नेता मायावती के साथ लम्बे समय तक रह नहीं पाये। इसमें से ज्यादातर को बहनजी ने स्वयं पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया था तो कुछ ने मौके की नजाकत को भांप कर स्वयं पार्टी छोड़ने में देरी नहीं की। वैसे यह यह बताना भी गलत नहीं होगा कि मान्यवर कांशीराम ने सिर्फ मायावती को ही आगे नहीं बढ़ाया था। अलग-अलग समाज के लोगों को चुनकर उन्हें नेता बनाया था। ओमप्रकाश राजभर, सोनेलाल पटेल, आरके चौधरी और मसूद अहमद ऐसे ही नेताओं में शामिल रहे हैं लेकिन सभी बिछड़ते गए। राजभर ने 2002 में, दिवंगत सोनेलाल पटेल ने 1995 में और आरके चौधरी ने 2016 में बसपा छोड़ दी थी। आरके चौधरी तो राजनीति में कोई जगह हासिल नहीं कर पाए लेकिन ओमप्रकाश राजभर और सोने लाल पटेल की पार्टी आज भी अच्छी खासी राजनीतिक ताकत रखती हैं।
बसपा को जमीन से उठाकर आसमान तक ले जाने वाली मायावती की राजनीति पिछले दस वर्षों से काफी उतार पर नजर आ रही है। 2007 के विधानसभा चुनाव में वह अंतिम बार बड़े अंतर से सपा से जीती थीं। आज की तारीख में बसपा सुप्रीमो मायावती पार्टी के कई दिग्गजों को बाहर का रास्ता दिखा चुकी हैं। इनमें कई ऐसे भी नाम हैं, जिन्हें एक समय मायावती का सबसे करीबी नेता माना जाता था। इनमें लालजी वर्मा न सिर्फ विधानमंडल दल के नेता थे बल्कि वर्मा वह नेता हैं, जिनके प्रदेश अध्यक्ष रहते 2007 में बसपा की पूर्ण बहुमत की सरकार यूपी में बनी थी। राम अचल राजभर भी मायावती के खासम खास माने जाते रहे हैं। 13 सालों में बसपा 206 विधायकों से महज एक विधायक पर आ टिकी है। बसपा के जिन नेताओं को प्रदेश स्तर पर पहचान हासिल हुई थी वह एक-एक करके बसपा से अलग हो गए हैं। 2007 में जब प्रदेश में बसपा की बहुमत की सरकार बनी थी तब मायावती ने जितने विधायकों को कैबिनेट मंत्री बनाया था, उनमें से आज एक्का-दुक्का ही बसपा के साथ खड़े हैं। 2007 में 206 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने वाली मायावती ने नकुल दुबे, नसीमुद्दीन सिद्दीकी, लालजी वर्मा, रामवीर उपाध्याय, ठाकुर जयवीर सिंह, सुधीर गोयल, स्वामी प्रसाद मौर्य, वेदराम भाटी, चौधरी लक्ष्मी नारायण, राकेश धर त्रिपाठी, बाबू सिंह कुशवाहा, फागू चौहान, दद्दू प्रसाद, राम प्रसाद चौधरी, धर्म सिंह सैनी, राम अचल राजभर, सुखदेव राजभर और इंद्रजीत सरोज को बड़े पोर्टफोलियो दिए थे, लेकिन आज इसमें से कोई भी बसपा में नहीं है। सबने अपनी अलग राह पकड़ ली है।
2012 में समाजवादी पार्टी चुनाव जीती और मुलायम ने अपने बेटे अखिलेश को सीएम की कुर्सी पर बैठा दिया। उसके पश्चात 2017 में बीजेपी की सरकार बनी और योगी आदित्यनाथ सीएम की कुर्सी पर विराजमान हुए। 2022 में भी उनको जीत हासिल हुई और एक बार फिर वह सीएम बने। लेकिन मायावती का कहीं से कोई भला नहीं हुआ। 2007 में चुनाव जीतकर सरकार बनाने के बाद से उनकी सत्ता में वापसी भी नहीं हुई है जबकि अपनी ताकत बढ़ाने के लिये मायावती ने 2019 में अपनी धुर विरोधी समाजवादी पार्टी तक से हाथ मिला लिया। परिणाम स्वरूप उनके दस सांसद चुनाव जीते थे, लेकिन अब यह सांसद भी बसपा से दूरी बनाने लगे हैं। लोकसभा चुनाव से पहले बसपा नेता शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली ने समाजवादी पार्टी ज्वाइन कर ली है। उन्होंने कहा, “पार्टी बदलना मेरे लिए समय की जरूरत थी। मैं समाजवादी पार्टी का हिस्सा बन गया हूं और अब यह मेरा कर्तव्य है कि पार्टी को मजबूत करूँ और अखिलेश यादव का समर्थन करूँ। मुझे यकीन है कि आगामी लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन अच्छा प्रदर्शन करेगा। हम सेक्युलर लोगों के साथ रहना चाहते हैं।” गुड्डू जमाली आजमगढ़ की मुबारकपुर सीट से साल 2012 और 2017 में बीएसपी के विधायक रह चुके हैं। ऐसा माना जाता है कि इस क्षेत्र में उनकी अच्छी पकड़ है। उन्होंने 2014 और 2022 का लोकसभा उपचुनाव क्रमशः सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव और धर्मेंद्र यादव के खिलाफ बसपा के टिकट पर लड़ा था। इसके अलावा अन्य सांसद रितेश पांडेय ने गत दिनों पार्टी से इस्तीफा देकर बीजेपी में शामिल होने की घोषणा की तो इसको लेकर चर्चा भी छिड़ गई। बड़ी बात यह है कि वह अकेले नहीं हैं। पार्टी के कई सांसदों के बारे में ऐसी खबरें आ रही हैं कि उनकी निष्ठा बदल चुकी है। हालांकि जब तक औपचारिक घोषणा न हो जाए तब तक ऐसी अटकलों को ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती। मगर बीएसपी चीफ मायावती ने खुद यह कहकर इन खबरों को कुछ हद तक प्रामाणिकता दे दी है कि अपना हित साधने में लगे ऐसे सांसदों को पार्टी टिकट दे भी तो क्यों?
2019 के लोकसभा चुनाव में सपा के साथ गठबंधन में रहकर बीएसपी ने यूपी की 10 सीटें जीती थी। उनमें से 6 सांसद या तो बसपा छोड़ चुके हैं या स्पष्ट संकेत दे चुके हैं कि वह नया विकल्प तलाशेंगे। बीएसपी के दो और सांसदों के जल्द पाला बदलने की अटकलें हैं। इनमें से एक पश्चिमी यूपी के सांसद हैं, जो अब अपना भविष्य जयंत चौधरी के राष्ट्रीय लोक दल में देख रहे हैं। आरएलडी हाल ही में भाजपा के साथ आ चुका है। यूपी की लालगंज सीट से बसपा सांसद संगीता आजाद के भी भाजपा में शामिल होने की चर्चा है। उन्हें उनके पति के साथ बजट सत्र के दौरान केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह के दफ्तर के बाहर देखे जाने से इन कयासों को और हवा मिली है। अफजाल अंसारी को सपा ने उम्मीदवार घोषित किया है। समाजवादी पार्टी ने गाजीपुर के बीएसपी सांसद अफजाल अंसारी को उसी सीट से अपनी पार्टी का उम्मीदवार बनाने की घोषणा की है। पिछली बार अंसारी ने जम्मू और कश्मीर के मौजूदा लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा को हराया था।
उधर, बसपा से निकाले जाने के बाद सांसद दानिश अली की कांग्रेस से दोस्ती बढ़ गई है। अमरोहा से सांसद दानिश को मायावती ने टीएमसी की पूर्व सांसद महुआ मोइत्रा के रिश्वत के बदले प्रश्न पूछने के मामले में उनका समर्थन करने के लिए निलंबित कर दिया था। दानिश का लगभग साफ है कि उनके लिए कांग्रेस पार्टी का दरवाजा खुला है। वह राहुल गांधी की भारत जोड़ो न्याय यात्रा में भी शामिल हो चुके हैं। लेकिन अमरोहा में दानिश को टिकट देने को लेकर कलह भी शुरू हो गई है। जौनपुर के बसपा सांसद श्याम सिंह यादव ने भी कांग्रेस की यात्रा में शिरकत करके अपना इरादा साफ कर दिया है। वह मुलायम सिंह यादव के जन्मदिवस से जुड़े कार्यक्रमों में भी भाग ले चुके हैं।
बसपा के लगातार कमजोर होने की वजह है हाल के चुनावों में बीससपी का लचर प्रदर्शन, जिसने पार्टी के भविष्य से जुड़ी चिंताओं को मजबूती दी है। यहां यह भी बताना जरूरी है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में दस सीटें जीतने वाली बसपा को 2014 लोकसभा चुनाव में एक भी सीट नहीं मिली थी। 2019 लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल के साथ गठबंधन में उसने 10 सीटें जीतीं, लेकिन नतीजे आने के ठीक बाद पार्टी ने गठबंधन तोड़ने की घोषणा कर दी। 2022 विधानसभा चुनाव में पार्टी अकेले लड़ी और सिर्फ एक सीट पर जीत हासिल कर पाई। उसका वोट शेयर भी गिरकर 12 फीसदी पर आ गया, जबकि 2014 में एक भी सीट हासिल नहीं करने के बावजूद उसे 19.77 फीसदी वोट मिले थे, परंतु अब मायावती लोकसभा चुनाव अकेले लड़ने की बात कह रही हैं। गिरते जनाधार के बीच माया ने लोकसभा चुनाव के लिये एकला चलो की जैसे ही घोषणा की, बसपा समर्थकों में बेचैनी बढ़ गई। गौर करने की बात है कि बीएसपी हमेशा किसी न किसी गठबंधन के जरिए ही सत्ता तक पहुंची है। एकमात्र अपवाद 2007 के विधानसभा चुनाव रहे जिसमें पार्टी ने बहुजन हिताय की जगह सर्वजन हिताय को चुनावी मंत्र बनाया था। अपने मुख्य समर्थक वर्ग के साथ ही किसी और तबके को साथ लेकर ही वह चुनावी जीत को साध पाती हैं। ऐसे में मौजूदा पॉलिसी पार्टी के बाहर ही नहीं, अंदर भी कई तरह के सवाल और संदेह पैदा कर रही है।
बीएसपी प्रमुख मायावती ने एकला चलो की राह पकड़ी है, यह चिंता की बात नहीं है, लेकिन उनके समर्थकों में चिंता इस बात की है कि बहनजी अब जनसभा करने से कतराने लगी हैं, जबकि यही उनकी ताकत हुआ करती थी। लखनऊ के रमाबाई मैदान को जनसमूह से भरने की ताकत मायावती के अलावा कभी कोई नहीं दिखा पाया। अब मायावती सार्वजनिक रूप से भी काफी कम दिखती हैं। उन्होंने अपनी कई जिम्मेदारियां भी अपने भतीजे आकाश आनंद को सौंप दी हैं। भले ही मायावती ने औपचारिक तौर पर ऐसी घोषणा भले न की हो, परंतु उन्होंने पार्टी में यह साफ कर दिया है कि उनके भतीजे आकाश आनंद ही उनके उत्तराधिकारी होंगे। बहुजन समाज के हितों को समर्पित मानी जाने वाली इस पार्टी के समर्थकों के लिए यह परिवारवादी रुझान एक नई चीज है और कहा जा रहा है कि उनके लिए इसे बचाना आसान नहीं होगा।
खैर, किसी नेता या राजनीतिक दल की भूमिका या उसके सफर का भविष्य एकाध फैसलों या कुछ चुनाव परिणामों से नहीं तय किया जा सकता है। आज भी बीएसपी कुछ राज्यों में दलित समूहों के बीच सबसे प्रभावी उपस्थिति रखती है। यही नहीं, अपने लंबे राजनीतिक कॅरियर में मायावती अपने समर्थकों को ही नहीं, विरोधियों को भी चौंकाती रही हैं, लेकिन इस बार वह ऐसा कुछ कर पाती हैं या नहीं, इसका जवाब पाने के लिए लोकसभा चुनाव के नतीजों का इंतजार करना होगा। इस बीच बहुजन समाज पार्टी ने बिहार के बक्सर लोकसभा क्षेत्र से अपना प्रत्याशी घोषित कर दिया है। उन्होंने अनिल कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया है। बसपा के राज्यसभा सदस्य रामजी गौतम ने कहा कि बहुजन समाज पार्टी बिहार की 40 सीटों पर पूरी ताकत के साथ चुनाव लड़ने जा रही है और इस बार बिहार में बीएसपी भी अपना ताकत दिखाएगी।