Category: कृषि

  • करेले की खेती से किसान बनेंगे मालामाल, जानें बुवाई से लेकर तुड़ाई तक का पूरा प्रोसेस

    करेले की खेती से किसान बनेंगे मालामाल, जानें बुवाई से लेकर तुड़ाई तक का पूरा प्रोसेस

     किसान कम समय में अधिक कमाई के लिए सब्जियों की खेती करना पसंद करते हैं और इसमें सफल भी होते हैं. इनमें से एक करेला भी है, जिसकी मांग मार्केट में हमेशा ही देखने को मिलती है. इसका भाव भी काफी अच्छा मिल जाता है, किसान करेले की खेती करके अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं.

     भारत के किसान पारंपरिक फसलों खेती से हटकर सब्जियों की खेती करके अच्छा खासा मुनाफा कमा रहे हैं. किसान कम समय में अधिक कमाई के लिए सब्जियों की खेती करना पसंद करते हैं और इसमें सफल भी होते हैं. इनमें से एक करेला भी है, जिसकी मांग मार्केट में हमेशा ही देखने को मिलती है. इसमें विटामिन A, B और C काफी अच्छी मात्रा में पाया जाता है. करेले में आयरन, मैग्नीज, कैरोटीन, पोटेशियम, मैग्नीशियम, बीटाकैरोटीन, लूटीन, जिंक आदि जैसे कई पोषक तत्व पाए जाते हैं, जो कई बीमारियों को दूर रखने में मदद करते हैं. करेले का सेवन स्वास्थ्य के लिए काफी फायदेमंद माना जाता है, क्योंकि यह एक औषधीय गुणों से युक्त है. बाजारों में इसका भाव भी काफी अच्छा मिल जाता है, किसान करेले की खेती करके अच्छा खासा मुनाफा कमा सकते हैं.
    करेले की खेती के लिए उपयुक्त मिट्‌टी
    करेले की खेती करने के लिए सबसे उपयुक्त बलुई दोमट मिट्टी को माना जाता है. इसके अलावा, नदी के किनारे पाए जाने वाली जलोढ़ मिट्टी को भी करेले की खेती के लिए अच्छा माना जाता है.करेले की खेती के लिए उपयुक्त तापमान

    करेले की खेती करने के लिए अधिक तापमान की आवश्यकता नहीं होती है. इसकी फसल से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए 20 डिग्री से 40 डिग्री सेल्सियस का तापमान उपयुक्त माना जाता है. इसके अलावा, करेले के खेतों में नमी बनाए रखना भी काफी जरूरी होता है.करेले की उन्नत किस्में

    भारत में करेले की कई उन्नत किस्में उपलब्ध हैं, किसान इन किस्मों का चयन अपने क्षेत्र के अनुसार करते हैं. यदि हम करेले की उन उन्नत किस्मों की बात करें जो ज्यादा प्रचलन में है, तो इनमें – पूसा विशेष, हिसार सलेक्शन, कल्याणपुर बारहमासी, कोयम्बटूर लौंग, पूसा दो मौसमी, पंजाब करेला-1, पंजाब-14, सोलन हरा, अर्का हरित, पूसा हाइब्रिड-2, पूसा औषधि, सोलन सफ़ेद, प्रिया को-1, एस डी यू- 1, कल्याणपुर सोना और पूसा शंकर-1 आदि उन्नत किस्में शामिल हैं.

    करेले की खेती के लिए सही समय

    किसान करेले की खेती साल के 12 महीने कर सकते हैं, क्योंकि वैज्ञानिकों ने इसकी ऐसी हाईब्रिड किस्में को विकसित कर दिया है, जिनकी खेती किसान साल भर कर सकते हैं. गर्मी में जनवरी से मार्च तक इसकी बुआई की जा सकती है, वहीं मैदानी इलाकों में बारिश के मौसम में करेले की बुवाई जून से जुलाई तक की जा सकती है, जबकि पहाड़ियों इलाकों में करेले की बुवाई मार्च से जून तक की जा सकती है.

    करेले की बुवाई का सही तरीका

    • करेले की बुवाई करने से पहले किसानों को खेती की अच्छे से जुताई कर लेनी चाहिए.
    • बुवाई से एक दिन पहले बीजों को एक दिन के लिए पानी में भिगोना कर रख देना चाहिए.
    • अब पाटा लगाकर इसके खेत को समतल कर लेना चाहिए.
    • इसके खेतों में किसानों को लगभग 2-2 फीट पर क्यारियां बना लेंनी चाहिए.
    • अब इन क्यारियों में लगभग 1 से 1.5 मीटर की दूरी पर इसके बीजों की रोपाई कर देनी चाहिए.
    • किसानों को करेले के बीजों को खेत में लगभग 2 से 2.5 सेमी की गहराई पर रोपाई करनी चाहिए.
    • अब खेत में 1/5 भाग में नर पैतृक और 4/5 भाग में मादा पैतृक की बुवाई करनी चाहिए, इसकी बुआई अलग-अलग खंडों में करनी चाहिए.
    • किसानों को इसके पौध की रोपाई करते समय नाली से नाली की दूरी लगभग 2 मीटर रखनी चाहिए.
    • वहीं पौधे से पौधे की दूरी लगभग 50 सेंटीमीटर तक रखनी चाहिए.
    • इसके अलावा नाली की मेढों की ऊंचाई लगभग 50 सेंटीमीटर तक किसानों को रखनी चाहिए.

    करेले के खेतों की सिंचाई
    करेले की पसल को कम ही सिंचाई की आवश्यकता होती है, बस इसके खेत में नमी का बना रहना बेहद जरूरी होता है. इस नमी को बनाए रखने के लिए किसान हल्की सिंचाई कर सकते हैं. इसके अलावा, जब इसकी फसल में फूल व फल बनने लगे, तो हल्की सिंचाई करनी चाहिए. लेकिन सिंचाई करते वक्त किसानों को ध्यान देना होता है कि इसके खेत में पानी का ठहराव ना हो. करेले के खेत में जल निकासी का प्रबंध काफी जरूरी होता है, ऐसा ना होने पर फसल भी खराब हो सकती है.
    करेले की फसल की निराई-गुडाई

    किसानों को करेले की फसल के शुरुआत में ही निराई-गुड़ाई कर लेनी चाहिए. इसके पौधे के साथ साथ कई अनावश्यक दूसरे पौधे उग आते हैं, तो ऐसे में आपको इसके खेत की निराई-गुडाई कर लेनी चाहिए और दूसरे पौधों को हटा कर दूर फेंक देना चाहिए. शुरूआत से ही यदि इसके पौधे को खरपतवार से मुक्त रखते है, तो करेले की अच्छी फसल प्राप्त होती है.

    करेले की कटाई/तुड़ाई

    करेले की बुवाई करने के लगभग 60 से 70 दिनों में इसकी फसल तैयार हो जाती है. किसानों को इसके फलों की तुड़ाई छोटी और मुलायम अवस्था में ही कर लेनी चाहिए. तुड़ाई करते वक्त ध्यान रहें कि करेले के साथ डंठल की लंबाई 2 सेंटीमीटर तक होनी चाहिए, ऐसा करने से फल ज्यादा समय तक ताजा रहता है. आपको इसकी तुड़ाई हमेशा सुबह के समय ही करनी चाहिए.

    करेले की खेती में लागत और मुनाफा

    प्रति एकड़ में करेले की खेती करने पर किसान की लगभग 30 हजार रुपये की लागत आती है. करेले की फसल एक एकड़ भूमि पर लगाने से लगभग 50 से 60 क्विंटल तक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है. किसान इसकी एक एकड़ भूमि में खेती करके करीब 2 से 3 लाख रुपये तक का मुनाफा कमा सकते हैं.

  • जैविक खादों से कृषि उत्पादन में वृद्धि, यहां जानें इसकी खासियत

    जैविक खादों से कृषि उत्पादन में वृद्धि, यहां जानें इसकी खासियत

    जैविक खेती की वह पुरानी पद्धति है जिसमें प्राकृतिक संसाधन का उपयोग करके जैविक खाद तैयार किया जाता है. इसमें विशेष रूप से कृषि से उत्पादित वैसे पदार्थ, दिन का उपयोग खाद्यान्नों के तौर पर नहीं होता, उन पदार्थों को प्रकृति संवत सरल विधि से खाद तैयार किया जाता है.
    महंगाई के समस्या का एक प्रमुख कारण कृषि उत्पादन में कमी है. जहां कुछ दशक पूर्व भारत में हरित क्रांति आई थी. देश में खाद्यानों का भंडार था. यहां तक कि हमारे देश से दूसरे देशों को खाद्यानों का निर्यात होता था. वही अचानक यह समस्या कैसे आई? यह विचार का विषय है. विश्व में खदानों के उत्पादन पर विचार किया जाए तो भारत की स्थिति बहुत ही चिंतनीय है. जहां पड़ोसी चीन में प्रति हेक्टेयर उत्पादन 80 से 100 क्विंटल है, वही हमारे देश में मात्र 40 से 50 क्विंटल है. इस संबंध में प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक डॉक्टर स्वामीनाथन ने कहा कि “हमारे देश में कृषि भूमि की उपज क्षमता में 100 से 200% वृद्धि की संभावना है” अर्थात हम चीन से भी अधिक उत्पादन कर सकते हैं.

    उपरोक्त संदर्भ में कृषि उत्पादन में परिवर्तन की आवश्यकता है अर्थात रासायनिक खेती की जगह पुनः जैविक खेती पर ध्यान देना अपेक्षित है. जैविक कृषि खेती की वह पुरानी पद्धति है जिसमें प्राकृतिक संसाधन का उपयोग करके जैविक खाद तैयार किया जाता है. इसमें विशेष रूप से कृषि से उत्पादित वैसे पदार्थ, दिन का उपयोग खाद्यान्नों के तौर पर नहीं होता, उन पदार्थों को प्रकृति संवत सरल विधि से खाद तैयार किया जाता है. इस संबंध में अनंत काल से गांव में एक कहावत प्रचलित है. केंचुए किसान के मित्र होते हैं. यह अब वर्तमान में कृषि वैज्ञानिकों ने प्रमाणित कर दिया है कि केंचुए खेती की उर्वरता बढ़ाने में जो सहायता करते हैं वह सामान्य यांत्रिक रूप से नहीं की जा सकती है. केंचुए की प्रजाति अफ्रीकन नाइट क्राउलर 1 घंटे में 100 बार भूमि के अंदर चक्कर लगाती हैं. इस प्रक्रिया द्वारा भूमि की उर्वरा प्रचुर मात्रा में बढ़ता है.

    केंचुए से भूमि की उर्वरा प्रचुर मात्रा बढ़ती है
    केंचुए से जैविक खाद का निर्माण वर्तमान सदी के देन है जिसमें इस जीव को एक उत्प्रेरक की तरह उपयोग किया जाता है. वैसे तो केंचुए की अनेक प्रजातियां उपलब्ध है किंतु जैविक खाद निर्माण के लिए अफ्रीकन नाइट क्राउलर सर्वोत्तम है. यह काले रंग का 6 से 7 इंची लंबा केंचुआ होता है जो सम्मान से भी छोटा व रंग में भिन्न होता है. इसका प्रजनन बहुत सरल एवं सुगम्य है. पहली बार में इसके अण्डे छोटे केंचुए में मिट्टी का क्रय करके एक वैज्ञानिक विधि से निर्मित गड्ढे में रखकर प्रजनन कराया जाता है. समान तौर पर इस केंचुआ के लिए 20 से 30 सेंटीग्रेड तापमान और उपयुक्त रहता है. किन्तु 2 से 4 सेंटीग्रेड कम ज्यादा तापमान पर भी यह जीवित रह सकता है. इसके प्रजनन में कच्चा गोबर काली मिट्टी के साथ में रहती है तथा समय पर पानी का छिड़काव कर गर्मी में करना लाभदायक रहता है.

    पूरे उत्तर भारत में तालाबों में जलकुंभी ने अपने पड़ाव बना लिया है अर्थात यह जंगली खरपतवार पूरे तालाब से अपने आप में फैल जाती है. जलकुंभी पूरे देश में वैज्ञानिकों के लिए एक चिंता का विषय है क्योंकि दिन पर दिन इसका फैलाव एक कोने से दूसरे और बढ़ रहा है. ऐसे समय में इस खरपतवार को शुद्ध प्रयोग खाद बनाने में किया जा सकता है. यहां एक अनुपयोगी जैविक पदार्थ को उपयोगी बनाना है. अंत तक जो खरपतवार समस्या बना हुआ था, उसका सदुपयोग हरि का जैविक खाद बनाने में अप्रत्याशित सफलता का सकारात्मक उदाहरण है.

    गोबर की खाद
    जलकुंभी के खरपतवार पत्तों को उसकी प्राकृतिक अवस्था में तालाब से काटकर उसके छोटे-छोटे टुकड़े में काटकर सुखा लें. फिर आवश्यकतानुसार अर्थात 8* 6 * 4 का गड्ढा बनाकर जिसमें धरातल पक्का अवश्य होना चाहिए उसकी निचली तह में गोबर की खाद गिली गोबर की खाद की सतह बना लेना चाहिए. फिर छोटे-छोटे जलकुंभी की पत्तियों को गड्ढे में डालें, गड्ढे को ऊपर तक भर दें तथा उसके ऊपर गली काली मिट्टी की सतह बनाएं जिसमें गोबर भी मिला हो तो अच्छा है. इस मिश्रण में कछुआ को प्राप्त मात्रा में एक से डेढ़ किलोग्राम डाल दें, फिर इस गड्ढे को गोबर से लिप दें. इस गड्ढे को 50 से 60 दिन इसी प्रकार ही रहने दे. गर्मी के समय दो से तीन बार पानी का छिड़काव करें. बरसात में भारी वर्षा से गड्ढे को बचाए रखने के लिए उसे पर छप्पर फूस अथवा तीरपाल डाल दें.

    रबी फसलों के लिए करें इन जैविक खादों का इस्तेमाल
    आने वाले रबी सीजन के लिए किसान इन जैविक खादों का इस्तेमाल कर सकते हैं, जिससे होगा बंपर उत्पादन….…

    जब केंचुए के खाद बना लेते हैं, अर्थात जलकुंभी को जैविक खाद बन जाती है तो केंचुए गड्ढे की सतह पर आ जाते हैं और खाद का रंग हल्का मटमैला हो जाता है. इस खाद के मिश्रण को गड्ढे से बाहर निकाल बाहर हल्की धूप में सुखा ले. खाद को यदि वाणिज्यिक स्तर पर बनाकर विक्रय करना है तो 1-2 सेंटीमीटर की छलनी में छान और सुखाकर छोटे-बड़े थैलों में भर सकते हैं. छलनी में केंचुए इकट्ठे हो जाए तो उन्हें पूर्ण उपयोग में ला सकते हैं. यहां स्पष्ट करना आवश्यक है कि केंचुए की खाद चाय की पत्ती जैसी, 1 सेंटीमीटर के लगभग आकार की आ जाए तो उसे पूर्ण रूप से सुखाकर थैलों में भरें गीली खाद नमी के कारण सड़ सकती है. शेष खाद को पूर्ण उपयोग में ला सकते हैं. यदि खाद का उपयोग अपने खेत में करना है तो सीधे खेत में डाली जा सकती है.

    केंचुए की खाद में सम्मान कंपोस्ट की खाद से 40 से 45% अधिक पोषक तत्व होते हैं. साथ में ही एक और विशेषता होती है कि खेत को यह खाद अधिक उपजाऊ बनती है. व्यावहारिक प्रयोग से यह सिद्ध हो चुका है कि केंचुए की खाद के द्वारा सामान खाद से दुगना उत्पादन होता है. खाद को खेती में रबी के फसल में खरीफ की फसल के काटने के बाद 2 से 3 जताई के बाद डालें. यह खेत की निचली सतह में न केवल नमी बनाए रखती है, अपितु खेत की उर्वरा शक्ति बनाई भी रखती है.

  • बासमती धान की टॉप 5 किस्में, जो कम समय में देती हैं 60 क्विंटल तक पैदावार

    बासमती धान की टॉप 5 किस्में, जो कम समय में देती हैं 60 क्विंटल तक पैदावार

    खरीफ सीजन नजदीक है और इसमें धान की खेती का जाती है. धान की कुछ किस्में ऐसी भी है, जिसकी खेती से कम समय में अधिक फसल तैयार की जा सकती है. किसान बासमती धान की खेती करें, तो इससे दोगुना मुनाफा कमा सकते हैं. आइये बासमती धान की 5 बेस्ट किस्मों के बारें में जानें.

    ये हैं बासमती धान की टॉप 5 किस्में

     भारत एक कृषि प्रधान देश है और यहां बड़े पैमाने पर धान की खेती की जाती है. अधिकतर किसान धान की पारंपरिक खेती पर जोर देते हैं, लेकिन अब खेती के तरीकों में बदलाव आ रहे हैं. खरीफ सीजन नजदीक है और इसमें धान की खेती का जाती है. धान की कुछ किस्में ऐसी भी है, जिसकी खेती से कम समय में अधिक फसल तैयार की जा सकती है. यदि किसान बासमती धान की खेती करें, तो इससे दोगुना मुनाफा कमा सकते हैं. बासमती धान से तैयार होने वाले चावल खुशबूदार होने के साथ-साथ स्वादिष्ट भी होते हैं और इनकी मांग सालभर होती है.आइये कृषि जागरण के इस आर्टिकल में बासमती धान की उन्नत किस्म और खेती का पूरा प्रोसेस जानें.

    बासमती धान की नर्सरी

    किसानों को बासमती धान लगाने के लिए मई-जून में खेत की जुताई करने के बाद घास को साफ कर देना चाहिए. इसके बाद, जून-जुलाई में इस मौसम की पहली बारिश होते ही रोपाई शुरू कर देनी चाहिए. किसान यदि बासमती धान की नर्सरी लगना अभी शुरू कर सकते हैं.

    कैसे करें बीज की बुआई?

    किसानों को धान की बुआई करने से पहले कार्बनडाजिम या त्रिपोजियम से धान का सही तरीके से उपचार करना चाहिए. ऐसा करने से धान के बीज तेजी से अंकुरित होने लगते हैं और फसल में कीड़े भी नहीं लगते. धान की नर्सरी तैयार करने से पहले इसके बीजों को एक दिन पहले अच्छी तरह से साफ पानी में भिगोकर रख देना चाहिए और बीजों को नर्सरी में लगाना चाहिए. नर्सरी में 25 से 30 दिनों तक तैयार होने के बाद इसे खेत में लगाते वक्त ध्यान रखें की 2 से 3 इंच पानी हो.

    1. पूसा बासमती-6

    धान की पूसा बासमती-6 किस्म के पौधों की कम ऊंचाई रहती है, जो तेज हवा से सुरक्षित रहती है. इस किस्म की धान से मिलने वाला चावल दाने के समान आकार का होता है. किसान पूसा बासमती-6 धान की खेती करके प्रति हेक्टेयर से 55 से 60 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त कर सकते हैं.

    2. कस्तूरी बासमती

    धान की कस्तूरी बासमती किस्म अपने पौष्टिक गुणों के चलते किसानों के बीच पहचानी जाती है. इस धान के दाने छोटे होते हैं और काफी सुगंधित भी होते हैं. इस किस्म की धान का स्वाद भी काफी अच्छा होता है. बाजारों इस किस्म के बासमती की अच्छी कीमत मिल जाती है. इस किस्म की धान को तैयार होने में 120 से 130 दिनों का समय लगता है. किसान कस्तूरी बासमती धान की खेती करके प्रति हेक्टेयर से लगभग 30 से 40 क्विंटल पैदावार प्राप्त कर सकते हैं.

    3. पूसा बासमती 1121

    धान की पूसा बासमती 1121 किस्म की खेती सिंचित क्षेत्रों में की जाती है. इस किस्म की खेती करने वाले किसानों को खेतों में अधिक पानी की आवश्यकता होती है. धान की इस फसल से ज्यादा पानी में अधिक पैदावार प्राप्त होती है. पूसा बासमती 1121 धान के दाने लंबे और पतले होते हैं. इस किस्म का धान को तैयार होने में लगभग 140 से 150 दिनों का वक्त लगता है. इस किस्म की धान से प्रति हेक्टेयर 40 से 50 क्विंटल तक का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है.

    4. तरावड़ी बासमती

    धान की तरावड़ी बासमती किस्म भी काफी अच्छी मानी जाती है. इस धान को पकने में अन्य धान के मुकाबले थोड़ा ज्यादा समय लगता है. इस किस्म की धान को पकने में 140 से 160 दिनों का समय लगता है. तरावड़ी बासमती धान के दाने पतले और काफी सुगंधित होते हैं. किसान इस किस्म की खेती करके प्रति एकड़ 12 से 15 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त कर सकते हैं.

    5. बासमती 370

    धान की बासमती 370 किस्म बेहतरीन किस्मों में से एक मानी जाती है. इस किस्म के चावल भारत के साथ-साथ विदेशों में भी निर्यात किए जाते हैं. बासमती की इस किस्म को तैयार होने में 140 से 150 दिनों का समय लगता है. बासमती 370 धान के दाने काफी खुशबूदार होते हैं और इनकी लंबाई भी अधिक होती है. किसान धान की इस किस्म की खेती करके प्रति हेक्टेयर 20 से 25 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त कर सकते हैं.

  • खरीफ में मक्का लगाना है ज्यादा फायदेमंद, धान के मुकाबले मिलेगा दोगुना मुनाफा

    खरीफ में मक्का लगाना है ज्यादा फायदेमंद, धान के मुकाबले मिलेगा दोगुना मुनाफा

    मक्का की खेती देश में पूरे साल की जाती है. पानी की उपलब्धता होने पर अलग-अलग क्षेत्रों में किसान पूरे साल इसकी खेती करते हैं. अगर किसान धान के बजाए खरीफ सीजन में मक्का उगाएं तो उन्हें ज्यादा लाभ मिल सकता है. आइए जानते हैं धान के मुकाबले मक्का की खेती किसानों के लिए कैसे फायदेमंद हो सकती है.

    देश में रबी फसलों का सीजन खत्म हो चुका है. किसान अब खरीफ सीजन की तैयारियों में जुट गए हैं. वैसे तो खरीफ सीजन में कई फसलों की खेती की जाती है. लेकिन, देश के अधिकतर हिस्सों में धान या तो मक्का की खेती की जाती है. हालांकि, किसान कई बार असमंजस में रहते हैं की मक्का की खेती करें या धान की? बात अगर धान की करें तो ये खरीफ सीजन की प्रमुख फसल है. देश में धान की खेती बड़े पैमाने पर की जाती है. लेकिन किसानों के लिए धान की तुलना में मक्का की खेती ज्यादा फायदेमंद है. मक्का की खेती में किसानों को धान की तुलना में दोगुना मुनाफा मिल सकता है. आइए जानते हैं कैसे?सबसे पहले आपको बता मक्का की खेती देश में पूरे साल की जाती है. पानी की उपलब्धता होने पर अलग-अलग क्षेत्रों में किसान पूरे साल इसकी खेती करते हैं. लेकिन, मुख्य तौर पर यह खरीफ की फसल मानी जाती है. खरीफ सीजन में बड़े पैमाने पर इसकी खेती की जाती है. खास कर उन राज्यों में जहां किसान वर्षा आधारित सिंचाई पर निर्भर रहते हैं. उन राज्यों में किसान बारिश के सीजन में ऊपरी जमीन पर मक्का की खेती करते हैं और इसकी खेती से अच्छा उत्पादन हासिल करते हैं. मक्का की कीमत भी अच्छी मिलती है तो किसानों को इसे बेचकर अच्छा मुनाफा होता है. खास कर मक्का का प्रसंस्करण होने के बाद इससे कई उत्पाद तैयार होते हैं, इसलिए बाजार में इसकी खूब डिमांड रहती है.

    मक्का की खेती में मुनाफा

    मक्का के खेती करके किसान प्रति हेक्टेयर 68 हजार रुपये तक शुद्ध आय कमा सकते हैं. जबकि धान की खेती करके किसान प्रति हेक्टेयर मात्र 35 हजार रुपये का ही शुद्ध मुनाफा कमा सकते हैं. इसलिए इस खबर में हम आपको बताएंगे कि खरीफ सीजन में मकई की खेती करना क्यों अधिक लाभदायक होता है. अधिक से अधिक किसान इसकी खेती करके अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं और अपनी आय को बढ़ा सकते हैं.

    खरीफ में मक्का की खेती के फायदे

    कम पानी की आवश्यकत्ता: मक्का की फसल में बहुत कम पानी की आवश्यकत्ता होती है. जहां एक ओर मक्का के उपज में 627-628 मिमी/हेक्टेयर पानी की आवश्यकता है जबकि धान को उपजाने में औसतन 1000- 1200 मिमी/हेक्टेयर पानी की आवश्यकता होती है.

    कम अवधि: मक्के का विकास चक्र धान की तुलना में छोटा होता है. जिससे किसानों को अपनी फसल तेजी से काटने एवं बेचने में सुविधा मिलती है.

    उच्च उपज क्षमता: खरीफ मक्का का औसत उपज 50-55 क्विंटल/हेक्टेयर है. जबकि धान का औसत उपज 35-40 क्विंटल/हेक्टेयर है.

    कीट और रोग का दबाव कम: मक्का में धान के मुकाबले कीट का प्रकोप कम होता है और कीट प्रबंधन की लागत भी कम आती है.

    उच्च बाजार मांग और कीमतें: खरीफ मक्के की कटाई आम तौर पर रबी मक्के से पहले की जाती है और यह बाजार में तब उपलब्ध होता है जब आपूर्ति अपेक्षाकृत कम होती है. जिससे किसानों को काफी अच्छा दाम मिलता है.

    फसल चक्र के लाभ: खरीफ मक्का को गेहूं या दालों जैसी अन्य फसलों के साथ चक्र में उगाया जा सकता है, जिससे मिट्टी की उर्वरता में सुधार हो सकता है और कीटों और बीमारियों का जमाव कम हो सकता है.

    विविधीकरण का अवसर: खरीफ मक्का फसल विविधीकरण का अवसर प्रदान करता है, जिससे एक ही फसल (जैसे धान) उगाने से जुड़े जोखिम कम हो जाते हैं.

  • जून में करें हरी मिर्च की इन 5 उन्नत किस्मों की खेती, प्रति हेक्टेयर मिलेगा 350 क्विंटल उत्पादन

    जून में करें हरी मिर्च की इन 5 उन्नत किस्मों की खेती, प्रति हेक्टेयर मिलेगा 350 क्विंटल उत्पादन

    भारत में हरी मिर्च की खेती उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तामिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र और राजस्थान में की जाती है. किसान हरी मिर्च की उन्नत किस्मों की खेती करके अधिक कमाई कर सकते हैं. आज हम आपको हरी मिर्च की 5 उन्नत किस्मों की जानकारी देने जा रहे हैं.

    जून में करें हरी मिर्च की इन 5 उन्नत किस्मों की खेती

     हरी मिर्च एक नकदी फसल है, जिसकी खेती करके किसान कम समय में अधिक कमाई कर सकते हैं. हरी मिर्च भोजन का एक विशेष हिस्सा माना जाता है, इसका उपयोग देश के लगभग सभी रसोईघरों में अचार, मसालों और सब्जी की तरह उपयोग किया जाता है. हरी मिर्च हमारे शरीर के लिए बेहद फायदेमंद मानी जाती है, क्योंकि इसमें विटामिन A, C, फॉस्फोरस और कैल्शियम समेत कई पोषक तत्व पाए जाते हैं. हरी मिर्च में कैप्सेइसिन रसायन मौजूद होता है, जिससे इसमें तीखापन बना रहता है. भारत में हरी मिर्च की खेती उड़ीसा, आंध्र प्रदेश, तामिलनाडु, कर्नाटक, महाराष्ट्र और राजस्थान में की जाती है. किसान हरी मिर्च की उन्नत किस्मों की खेती करके अधिक कमाई कर सकते हैं.

    कृषि जागरण के इस आर्टिकल में आज हम आपको हरी मिर्च की 5 उन्नत किस्मों की जानकारी देने जा रहे हैं, जिनकी खेती जून में करके किसान बेहतरीन मुनाफा कमा सकते हैं.

    1. पूसा ज्वाला हरी मिर्च

    पूसा ज्वाला हरी मिर्च की सबसे उन्न्त किस्मों में से एक है. यह एक ऐसी हरी मिर्च की किस्म है, जो कीट और मकोड़ा की प्रतिरोधी होती है. किसान इस किस्म की हरी मिर्च की खेती करके प्रति एकड़ भूमि से लगभग 34 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त कर सकते हैं. बुवाई के लगभग 130 से 150 दिनों में हरी मिर्च की यह किस्म पककर तैयार हो जाती है. इस किस्म की मिर्च हल्के हरे रंग की होती है और इसके पौधे बौने और झाड़ीनुमा होते हैं.

    2. जवाहर मिर्च-148 किस्म

    जून के महीने में हरी मिर्च की उन्नत किस्म जवाहर मिर्च-148 की खेती भी किसानों के लिए काफी लाभदायक मानी जाती है. इस किस्म की मिर्च सबसे जल्द पकने वाली होती है और यह खाने में खोड़ी कम तीखी होती है. किसान प्रति हेक्टेयर में इस किस्म की मिर्च की खेती करके 85 से 100 क्विंटल तक हरी मिर्च का उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं. वहीं यदि इन्हें सुखा तोड़ा जाए तो प्रति हेक्टेयर से इस मिर्च का 18 से 25 क्विंटल उत्पादन प्राप्त हो सकता है.

    3. तेजस्वनी किस्म

    तेजस्वनी किस्म की हरी मिर्च जून माह में खेती के लिए उत्तम मानी जाती है. इस किस्म की हरी मिर्च की फलियां मध्यम आकार की होती है और मिर्च की लंबाई लगभग 10 सेंटीमीटर तक जाती है. किसान इस किस्म की हरी मिर्च की बुवाई के लगभग 70 से 75 दिनों बाद तुड़ाई कर सकते हैं. तेजस्वनी किस्म हरी मिर्च की खेती करके किसान प्रति हेक्टेयर से लगभग 200 से 250 क्विंटल तक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं.

    4. पंजाब लाल किस्म

    पंजाब लाल किस्म हरी मिर्च की उन्नत किस्मों में से एक है, इसके पौधे का आकार छोटा होता है और इसमें गहरी हरी पत्तियों आती है. इस किस्म हरी मिर्च का आकार भी कुछ ज्यादा बड़ा नहीं होता है. किसान इस किस्म की प्रति हेक्टेयर में खेती करके 100 से 120 क्विंटल तक हरी मिर्च का उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं. हरी मिर्च की इस किस्म में आपको लाल रंग की मिर्च देखने को मिल जाती है.

    5. काशी अर्ली किस्म

    काशी अर्ली किस्म की हरी मिर्च से किसानों को काफी तगड़ा उत्पादन प्राप्त होता है. किसान इस किस्म की हरी मिर्च की एक हेक्टेयर में खेती करके 300 से 350 क्विंटल तक का उत्पादन हासिल कर सकते है. इस किस्म की मिर्च का पौधा लगभग 70 से 75 सेंटीमीटर तक लंबा होता है और इसमें छोटी गांठ आती है. किसान काशी अर्ली किस्म हरी मिर्च की बुवाई के बाद से लगभग 45 दिनों के अंदर ही इसकी तुड़ाई कर सकते हैं.

  • सोयाबीन की इन उन्नत किस्मों से होगी तगड़ी कमाई, मिलेगी 30 क्विंटल/हेक्टेयर उपज

    सोयाबीन की इन उन्नत किस्मों से होगी तगड़ी कमाई, मिलेगी 30 क्विंटल/हेक्टेयर उपज

    सोयाबीन को शाकाहारी लोगों के लिए प्रोटीन का अच्छा स्रोत माना जाता है. मार्केट में हमेशा ही सोयाबीन की डिमांड रहती है. सोयाबीन देश की महत्वपूर्ण फसलों में से एक है और किसान इसकी खेती करके मोटी कमाई कर सकते हैं.

     सोयाबीन स्वाटिष्ट होने के साथ-साथ सेहत के लिए भी काफी लाभदायक होती है. सोयाबीन में कैल्शियम, प्रोटीन, विटामिन्स और अन्य जरूरी मिनरल्स की भरपूर मात्रा पाई जाती है. हेल्दी और फिट रहने के लिए लोगों से अपनी डाइट में सोयाबीन शामिल करनी की सलाह दी जाती है. सोयाबीन को शाकाहारी लोगों के लिए प्रोटीन का अच्छा स्रोत माना जाता है. मार्केट में हमेशा ही सोयाबीन की डिमांड रहती है. सोयाबीन देश की महत्वपूर्ण फसलों में से एक है और किसान इसकी खेती करके मोटी कमाई कर सकते हैं.

    आइये कृषि जागरण की इस पोस्ट में जानते हैं, सोयाबीन की खेती कैसे की जाती है और इसकी किस्में कौन-सी है?

    सोयाबीन की बुवाई

    सोयाबीन की बुवाई मई और जून के बीच होती है, क्योंकि इसके बीज लगाने का सही समय बरसात के मौसम की पहली बारिश मानी जाती है. किसान इस समय अपने खेतों में सोयाबीन की बवाई कर सकते हैं. खेत में बुवाई करते वक्त किसानों को ध्यान रखना होता है, कि बीज बोते वक्त खेत में पानी नहीं भरा होना चाहिए. बुवाई करते वक्त एक पौधे से दूसरे पौधे की दूरी कम से कम 5 से 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए.

    सोयाबीन की किस्में

    सोयाबीन की खेती से अच्छा उत्पादन प्राप्त करने के लिए किसानों को इसकी उन्नत किस्मों का चयन करना होता है. किसान इसकी खेती के लिए अलग-अलग किस्मों की सोयाबीन का चुनाव करते हैं. इसमें- जेएस 335, एमएससी 252, जेएस 9308, जेएस 2095 और जेस 2036 आदि किस्में शामिल है. किसान सोयाबीन की इन किस्मों के बीजों की बुवाई करके कम समय में ज्यादा कमाई सकते हैं.

    यूरिया का 3 बार उपयोग

    किसानों को सोयाबीन की खेतों में 2 से 3 बार थोड़ी मात्रा में यूरिया का उपयोग करना चाहिए. सोयाबीन की एक हेक्टेयर में बुवाई करते वक्त कम से कम 12 से 15 किलो यूरिया का छिड़काव किसानों को अपने खेतों में करना चाहिए. इसके बाद, जब पौधे विकसित होने लगे, तो 25 से 30 किलो यूरिया का उपयोग करें. सोयाबीन के पौधों में फूल आने पर 40 से 50 किलो यूरिया का खेतों में इस्तेमाल करें.

    एक हेक्टेयर में 30 क्विंटल उत्पादन

    सोयाबीन की खेती करने के लिए किसानों को कम पानी और कम जमीन की आवश्कता होती है. किसान इसकी फसल से हर साल तगड़ा मुनाफा कमा सकते हैं. यदि सोयाबीन की खेती एक हेक्टेयर में की जाती है, तो इससे 25 से 30 क्विंटल का उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है. किसान सोयाबीन की फसल लगाकर हर साल लाखों में मुनाफा कमा सकते हैं.

  • नेचुरल ग्रीन हाउस में खेती करने से किसान बन सकते हैं करोड़पति!

    नेचुरल ग्रीन हाउस में खेती करने से किसान बन सकते हैं करोड़पति!

    छत्तीसगढ़ बस्तर

    प्रगतिशील किसान डॉ राजाराम त्रिपाठी द्वारा तैयार किए नेचुरल ग्रीन हाउस मॉडल को किसान दो लाख रुपये में एक एकड़ में तैयार कर 8 से 10 सालों में लगभग तीन से चार करोड़ रुपये आसानी से कमा सकते हैं.

    कृषि एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है जो दुनिया भर के लोगों को भोजन समेत कई अन्य उत्पाद प्रदान करता है. हालांकि, खेती एक चुनौतीपूर्ण और अप्रत्याशित व्यवसाय है, और किसान इसे आमदनी का अच्छा सोर्स बनाने के लिए अनवरत प्रयासरत रहते हैं और कुछ न कुछ ईजाद करते रहे हैं. वही कुछ किसान इसमें सफल भी हुए हैं. उन्हीं किसानों में से एक छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले के रहने वाले डॉ राजाराम त्रिपाठी हैं जिन्होंने खेती का एक ऐसा मॉडल विकसित किया है जिसकी मदद से किसान महज कुछ सालों में आसानी से करोड़पति बन सकते हैं.

    दरअसल, प्रगतिशील किसान डॉ राजाराम त्रिपाठी ने नेचुरल ग्रीन हाउस का एक अद्भुत मॉडल तैयार किया है जिसका पेटेंट भी उन्होंने हासिल कर लिया है. राजाराम त्रिपाठी द्वारा विकसित नेचुरल ग्रीन हाउस मॉडल से किसान प्रति एकड़ 8-10 सालों में कई करोड़ रुपये  कमा सकते हैं. ऐसे में आइए प्रगतिशील किसान डॉ राजाराम त्रिपाठी द्वारा विस्तार से जानते हैं आखिर क्या है नेचुरल ग्रीन हाउस मॉडल? नेचुरल ग्रीन हाउस मॉडल किसानों के लिए फायदेमंद क्यों है? और नेचुरल ग्रीन हाउस में खेती करके किसान करोड़पति कैसे बन सकते हैं?

    नेचुरल ग्रीन हाउस मॉडल क्या है?

    कृषि जागरण से बातचीत में डॉ राजाराम त्रिपाठी ने बताया कि हमारे देश में लगभग 80 प्रतिशत ऐसे किसान हैं जिनके पास जमीन का रकबा चार एकड़ से कम है. ऐसे में ये किसान कम से कम जमीन में ज्यादा से ज्यादा उत्पादन कैसे लें? इसको ध्यान में रखते हुए मैंने पर्यावरण से जोड़ते हुए पेड़ लगाकर एक नेचुरल ग्रीन हाउस का एक ऐसा मॉडल तैयार किया है जिसमें पाली हाउस से किसानों को जो लाभ मिलता है वह सभी लाभ मिलने के साथ ही अतिरिक्त कई और लाभ भी मिलते हैं.दरअसल, नेचुरल ग्रीन हाउस का यह मॉडल पेड़ों की छाया से फसलों को सुरक्षा प्रदान करता है, धूप से बचाता है और बीमारी से भी बचाता है. वही नेचुरल ग्रीन हाउस विशेष टेक्नोलॉजी में तैयार होता है. इसको तैयार करने के लिए आस्ट्रेलियन टीक का पौधा लगाया जाता है जो कि बाबुल के पेड़ से तैयार हुआ है जिसकी खेती रेगिस्तान में भी आसानी से की जा सकती है, और जहां पर जल की समुचित व्यवस्था है वहां पर भी आसानी से की जा सकती है. वही इस विशिष्ट टेक्नोलॉजी को नेशनल पेटेंट के लिए हमने अप्लाई किया था और आपको मुझे यह बताते हुए बेहद खुशी हो रही है कि वह स्वीकार कर लिया गया है.

    नेचुरल ग्रीन हाउस के फायदे

    प्रगतिशील किसान डॉ राजाराम त्रिपाठी ने आगे बताया कि नेचुरल ग्रीन हाउस तैयार करने के लिए आस्ट्रेलियन टीक का पौधा लगाया जाता है जोकि नाइट्रोजन फिक्सेशन करता है. यह अपने 5 मीटर एरिया में नाइट्रोजन देता है. वही नेचुरल ग्रीन हाउस मॉडल में जो पेड़ लगाए जाते हैं वह लगभग 10 प्रतिशत एरिया कवर करते हैं बाकी जो एरिया होता है उसमें इंटरक्रॉपिंग आसानी से की जा सकती है. ऐसे में इसमें इंटरक्रॉपिंग (यह एक बहुफसलीय प्रथा है जिसमें एक ही खेत में एक साथ दो या दो से अधिक फसलों की खेती होती है) करने पर फसलों को अलग से नाइट्रोजन नहीं देना पड़ता है. इसके अलावा, नेचुरल ग्रीन हाउस पर्यावरण को भी सुधारता है, क्योंकि वह पेड़ों से बना होता है.

    पाली हाउस से बेहतर है नेचुरल ग्रीन हाउस

    प्रगतिशील किसान डॉ राजाराम त्रिपाठी ने आगे बताया कि आमतौर पर एक एकड़ जमीन में पाली हाउस लगाने के लिए लगभग 40 लाख रुपये की जरूरत पड़ती है जिसमें नेशनल हॉर्टिकल्चर बोर्ड 20 लाख रुपये अनुदान देता है. फिर भी एक एकड़ में पाली हाउस लगाने के लिए किसानों को 20 लाख रुपये की जरूरत पड़ती है. इसके अलावा पाली हाउस प्लास्टिक और लोहे का बने होने की वजह से 7 से 8 साल में खराब होने लगता है लेकिन जो नेचुरल ग्रीन हाउस में आस्ट्रेलियन टीक का पौधा लगता है वह 8 से 10 सालों में लगभग तीन से चार करोड़ रुपये का हो जाता है. एक तरफ पाली हाउस का 40 लाख रुपया जीरो रुपये  में कन्वर्ट हो जाता है, लेकिन दूसरी तरफ नेचुरल ग्रीन हॉउस में लगा 2 लाख रुपया 3 से 4 करोड़ रुपये हो जाता है.

    प्रगतिशील किसान डॉ राजाराम त्रिपाठी ने आगे कहा कि मेरा मानना है कि यह जो मॉडल है आने वाले वक्त में पूरे विश्व के लिए एक अच्छा मॉडल साबित होगा. नेचुरल ग्रीन हाउस में आमतौर पर हम किसी भी फसल की खेती करेंगे वह ऑर्गेनिक खेती होगी और साथ ही साथ उत्पादन भी ज्यादा होगा.
  • गर्म मौसम में मूंग की खेती को बढ़ावा,

    गर्म मौसम में मूंग की खेती को बढ़ावा,

    राज्य – बिहार

    किसान मूंग की खेती करके काफी अच्छा मुनाफा कमा सकते हैं. कृषि विभाग द्वारा बिहार राज्य में गर्म मौसम में मूंग की खेती को बढ़ावा देने के लिए योजना का क्रियान्वयन किया जा रहा है.
    भारत में किसानों द्वारा उगाई जाने वाली दलहनी फसलों में मूंग महत्वपूर्ण स्थान रखती है. इसमें 24% प्रोटीन होने के साथ-साथ रेशे और आयरन की भी काफी अच्छी मात्रा पाई जाती है, जिससे बाजारों में इनकी हमेशा ही अच्छी मांग रहती है. ऐसे में किसान मूंग की खेती करके काफी अच्छा मुनाफा कमा सकते है. कृषि विभाग द्वारा बिहार राज्य में गर्म मौसम में मूँग की खेती को बढ़ावा देने के लिए योजना का क्रियान्वयन किया जा रहा है. संजय कुमार अग्रवाल (सचिव, कृषि विभाग, बिहार) ने इस बात की जानकारी दी है.
    मूंग के बीज का वितरण
    उन्होंने बताया कि, बिहार में 80 प्रतिशत से ज्यादा मूंग की खेती गर्म मौसम में की जाती है. बिहार राज्य बीज निगम के माध्यम से राज्य के 4,06,107 किसानों के बीच 33,307 क्विंटल मूंग के बीज का अनुदानित दर पर वितरण किया गया है.
    मिट्टी की उर्वरा-शक्ति बढ़ाती है मूंग
    संजय कुमार अग्रवाल ने कहा कि, गर्म में मूंग की खेती न केवल धान-गेहूं फसल चक्र में तीसरे फसल के रूप में फसल सघनता को बढ़ाती है, बल्कि फसलों के उत्पादन, उत्पादकता और मिट्टी की उर्वरा-शक्ति में भी वृद्धि लाती है. मूंग की फसल अपने वृद्धि काल में सबसे ज्यादा गरमी सहन कर सकती है और किसान इसकी खेती करके कम लागत में अधिक लाभ कमा सकते हैं. उन्होंने बताया कि,गर्म मौसम में मूंग की खेती करने के किसानों को दो फायदे हो सकते हैं. पहला किसान मूंग के फली की एक तोड़ाई कर उपज प्राप्त कर सकते हैं और दूसरा फली तोड़ाई के उपरान्त इसके पौधे को मिट्टी में मिलाकर बड़ी मात्रा में हरी खाद के रूप में उपयोग कर सकते हैं.
    जीरो टिलेज तकनीक से मूंग की खेती का प्रत्यक्षण
    अग्रवाल ने बताया कि, बिहार राज्य में जलवायु अनुकूल कृषि कार्यक्रम के तहत् अल्पावधि (60-70 दिनों) के मूंग के प्रभेदों को बढ़ावा दिया जा रहा है. जलवायु अनुकूल कृषि कार्यक्रम में फसल अवशेष का प्रबंधन करते हुए जीरो टिलेज तकनीक से मूंग के खेती का प्रत्यक्षण प्रत्येक जिला में 05-05 चयनित गांवों अर्थात कुल 180 गांवों में किया जा रहा है.
    इस कार्यक्रम के अंतर्गत चयनित गांवों में 8,030 एकड़ क्षेत्र में जीरो टिलेज तकनीक से मूंग की खेती का प्रत्यक्षण किया गया है. आत्मा योजना तथा कृषि विज्ञान केन्द्रों के माध्यम से राज्य के किसानों को मूंग की खेती का प्रत्यक्षण और परिभ्रमण कराया जा रहा है, जिससे किसानों में इसके तकनीक के हस्तांतरण हो रहा है.

  • बदलती जलवायु ने किसानों को किया नयी बागवानी पद्धतियों को अपनाने पर मजबूर

    बदलती जलवायु ने किसानों को किया नयी बागवानी पद्धतियों को अपनाने पर मजबूर

    रायपुर।

    ग्लोबल वार्मिंग के बढ़ते प्रभाव के कारण उत्तराखंड में बागवानी उत्पादन में एक महत्वपूर्ण बदलाव चल रहा है। एक समय सेब, नाशपाती, आड़ू, प्लम और खुबानी जैसे शीतोष्ण फलों की समृद्ध पैदावार के लिए प्रसिद्ध, आज इस राज्य में इन फसलों की उपज और खेती के क्षेत्र में उल्लेखनीय गिरावट देखी जा रही है। पिछले सात वर्षों में, यह प्रवृत्ति तेजी से स्पष्ट हो गई है, जिससे स्थानीय किसानों के लिए चुनौतियाँ पैदा हो रही हैं और क्षेत्र के कृषि परिदृश्य में बदलाव आ रहा है।

    घटती पैदावार और खेती के क्षेत्र

    उत्तराखंड सरकार के बागवानी विभाग की एक रिपोर्ट के अनुसार, फलों की खेती का कुल क्षेत्रफल 2016-17 में 177,323.5 हेक्टेयर से घटकर 2022-23 में 81,692.58 हेक्टेयर हो गया है। यह 54% की कमी को दर्शाता है। इसी अवधि में फलों की पैदावार 44% गिरकर 662,847.11 मीट्रिक टन से 369,447.3 मीट्रिक टन हो गई।यह गिरावट शीतोष्ण फलों में सबसे अधिक देखी गई है, जिनमें नाशपाती, खुबानी, आलूबुखारा और अखरोट में सबसे अधिक गिरावट देखी गई है। उदाहरण के लिए, नाशपाती की खेती के क्षेत्र में 71.61% की कमी आई और इसकी उपज में 74.10% की गिरावट आई। इसी तरह, खुबानी, बेर और अखरोट के क्षेत्र और उपज दोनों में क्रमशः लगभग 70% और 66% की गिरावट देखी गई।

     

    कारण और परिणाम

    बदलता तापमान पैटर्न इन बदलावों का एक प्रमुख कारक है। गर्म सर्दियों और कम बर्फबारी ने शीतोष्ण फलों की वृद्धि के लिए महत्वपूर्ण सुप्तावस्था और फूल आने के चक्र को बाधित कर दिया है। आईसीएआर-सीएसएसआरआई कृषि विज्ञान केंद्र में बागवानी के प्रमुख और वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. पंकज नौटियाल ने बताया कि उच्च गुणवत्ता वाले सेब जैसी पारंपरिक समशीतोष्ण फसलों को पनपने के लिए निष्क्रियता के दौरान 7 डिग्री सेल्सियस से नीचे 1200-1600 घंटे की शीतलन अवधि की आवश्यकता होती है। हालाँकि, हाल के वर्षों में क्षेत्र की हल्की सर्दियाँ इन आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर पाई हैं, जिससे पैदावार कम हुई है।रानीखेत के मोहन चौबटिया जैसे किसानों ने इसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से महसूस किया है। उन्होंने कहा, ”सर्दियों में बर्फबारी और बारिश की कमी फलों के उत्पादन में एक बड़ी बाधा बन रही है। पिछले दो दशकों में अल्मोडा में शीतोष्ण फलों का उत्पादन आधा हो गया है।“

     

    जिला-स्तरीय बदलाव

    रिपोर्ट बागवानी उत्पादन में महत्वपूर्ण जिला-स्तरीय विविधताओं पर भी प्रकाश डालती है। टिहरी और देहरादून जिलों में खेती के क्षेत्र में सबसे अधिक गिरावट दर्ज की गई, जबकि अल्मोडा, पिथौरागढ़ और हरिद्वार में क्षेत्र और उपज दोनों में उल्लेखनीय कमी देखी गई। विशेष रूप से, अल्मोडा में फल उत्पादन में 84% की कमी दर्ज की गई, जो सभी जिलों में सबसे अधिक है।इसके विपरीत, उत्तरकाशी और रुद्रप्रयाग जैसे जिलों में खेती के क्षेत्र में कमी के बावजूद उपज में वृद्धि देखी गई, जो स्थानीय अनुकूलन या अनुकूल सूक्ष्म जलवायु परिस्थितियों का संकेत देता है।

     

    किसान कर रहे उष्णकटिबंधीय फलों का रुख

    शीतोष्ण फलों का उत्पादन कम व्यवहार्य होने के कारण, किसान तेजी से उष्णकटिबंधीय विकल्पों की ओर रुख कर रहे हैं। अमरूद और करौंदा जैसी फसलों के क्षेत्रफल और उपज दोनों में उल्लेखनीय वृद्धि देखी गई है। अमरूद की खेती के क्षेत्र में 36.63% की वृद्धि हुई, और इसकी उपज में 94.89% की वृद्धि हुई, जो अधिक जलवायु-लचीली फसलों की ओर एक रणनीतिक बदलाव को दर्शाता है।कुछ क्षेत्रों में, किसान आम्रपाली आम, कीवी और अनार जैसे उष्णकटिबंधीय फलों की उच्च घनत्व वाली खेती का प्रयोग कर रहे हैं, जो गर्म परिस्थितियों में अच्छी तरह से अनुकूलित हो गए हैं और बेहतर आर्थिक रिटर्न प्रदान करते हैं।

     

    डगर आगे की

    इन चुनौतियों से निपटने के लिए बहुआयामी दृष्टिकोण की आवश्यकता है। आईसीएआर-आईएआरआई में कृषि भौतिकी विभाग के प्रमुख डॉ. सुभाष नटराज, मौसम के रुझान और फसल की पैदावार पर उनके प्रभाव पर दीर्घकालिक अध्ययन की आवश्यकता पर जोर देते हैं। वह जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए जलवायु-लचीली फसल किस्मों और प्रबंधन प्रथाओं के विकास की वकालत करते हैं।इसके अलावा, जलवायु वित्तपोषण और किसानों को कृषि-मौसम संबंधी सलाह का समय पर प्रसार महत्वपूर्ण है। ये उपाय किसानों को प्रतिकूल मौसम की स्थिति से निपटने के लिए सूचित निर्णय लेने और रणनीति अपनाने में मदद कर सकते हैं।

  • कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित संजीवनी धान का फायदा अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचेः राज्यपाल

    कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित संजीवनी धान का फायदा अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचेः राज्यपाल

    रायपुर ।

    राज्यपाल विश्वभूषण हरिचंदन से आज इंदिरा गांधी कृषि विश्विद्यालय के कुलपति डॉ गिरीश चंदेल ने सौजन्य मुलाकात कर उन्हे इंदिरा गांधी कृषि विश्वविद्यालय द्वारा विकसित धान की नवीन प्रजाति संजीवनी धान के बारे में जानकारी दी। डॉ चंदेल ने राज्यपाल को बताया की भाभा एटॉमिक रिसर्च इंस्टीटयूट मुंबई के सहयोग से कृषि विश्वविद्यालय द्वारा छत्तीसगढ़ की औषधीय गुणों वाली परंपरागत किस्मों से संजीवनी धान का विकास किया गया है जो शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती है तथा इसमें एन्टी कैंसर गुण पाये गये हैं। राज्यपाल  हरचिंदन ने इस उपलब्धि के लिये कुलपति डॉ चंदेल तथा उनके वैज्ञानिकों को बधाई और शुभकामनायें दी।  हरिचंदन ने कहा की संजीवनी धान का ज्यादा मात्रा में उत्पादन किया जाये तथा अधिक से अधिक लोगों तक इसे पहुंचाया जाए जिससे इसका लाभ अधिक लोगों को मिल सके।