महामहिम से सहमति लेकर ही विधानसभा का विशेष सत्र बुलाए,
प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता सुरेंद्र वर्मा ने कहा है कि इसी तरह का एक बिल विगत 11 नवंबर से झारखंड विधानसभा में पारित होकर राजभवन में आज़ तक लंबित है, लेकिन दिसंबर में ही कर्नाटक विधानसभा में पारित आरक्षण विधेयक पर वहां महामहिम के तत्काल हस्ताक्षर हो गए। संवैधानिक संस्थानों को अपने अधिकार के साथ संवैधानिक कर्तव्यों का भी ध्यान रखना आवश्यक है विश्वसनीयता के लिए संवैधानिक मर्यादा और कार्यकलापों में पारदर्शिता भी अनिवार्य है। विधानसभा में पारित विधेयक पर राज्यपाल सिर्फ सहमति या असहमति व्यक्त कर सकती है बिना किसी ठोस वजह के बिल को इस तरह से लंबे समय तक लंबित रखना संवैधानिक अधिकारों का दुरुपयोग नहीं तो क्या है?
प्रदेश कांग्रेस प्रवक्ता सुरेंद्र वर्मा ने कहा है कि अनेकों मामलों में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यपाल के कार्यों की समीक्षा की है। नबाम रेबिया बनाम उपाध्यक्ष मामले में 2016 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि “संविधान के तहत राज्यपाल के पास ऐसा कोई कार्य नहीं है जिसे वह स्वयं निष्पादित कर सकता है“। 2016 में ही सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि राज्यपाल के विवेक के प्रयोग से संबंधित अनुच्छेद 163 सीमित है और उसके द्वारा किए जाने वाली कार्यवाही मनमानी या काल्पनिक नहीं होना चाहिए। विगत दिनों जब महाराष्ट्र में आधी रात को राष्ट्रपति शासन खत्म कर दिया गया और भोर होने से पहले अल्पमत के व्यक्ति को मुख्यमंत्री की शपथ दिलाई गई वह मामला भी सुप्रीम कोर्ट गया और सुनवाई हुई। राज्यपाल राज्य के मंत्रिपरिषद की सलाह मानने को बाध्य, राज्य का संवैधानिक प्रमुख होता है। 1974 में शमशेर सिंह बनाम पंजाब राज्य वाले मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि महामहिम अपने मंत्रियों की सलाह के अनुसार ही अपनी औपचारिक संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करेंगे, अतः स्पष्ट है कि संविधान से ऊपर कोई नहीं है। जवाबदेही से बचा नहीं जा सकता ना जनता के प्रति, ना ही संविधान के प्रति।