होर…,हइई..,हर….इस आवाज में वह जादू है..

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रायपुर 27 जनवरी 2023/
होर…,हई…,हो…,हर.. के साथ गाय में बंधी घंटी, घुंघरू और रंभाने की आवाज भोर होने के साथ हर गांव की गलियों से होकर घर के लोगों तक अक्सर सुनाई देती है। शाम को भी जब गोधूली का वक्त होता है, तब गांव से कुछ दूर चारागाह या गोठान से एक साथ घर की ओर लौटते पशुओं के झुंड से पुनः वही आवाज आती है, होर, हइई..हो, हर…। कब चलना है ? कब किस ओर मुड़ना है और कब वही रूक जाना है? यह सब इन्हीं शब्दों में है। यह आवाज भले ही आपकों और हमको समझ नही आती लेकिन झुंड में चलने वाले हर पशु इस
 आवाज को भलीभांति समझते हैं। अपने मालिक के घर से बाहर चरने के लिये निकलने से लेकर वापस घर लौटने के इस लंबे अंतराल में गांव के पशुओं का एक अस्थाई मालिक होता है, वह है चरवाहा। हाथों में तेंदू की लाठी लिए, सिर पर खुमरी पहने हुए एक अलग अंदाज और पोशाक में सैकड़ों पशुओं के झुंड को काबू करता हुआ गाँव से दूर किसी सुनसान जगह दैहान, खार या गोठान पर ले जाता है। यह चरवाहा ही है। जिसे धूप हो, छांव हो, बारिश हो या कड़ाके की ठंड। कभी किसी की परवाह किए बगैर अपने ही धुन में रमकर सभी पशुओं की न सिर्फ देखरेख करता है। एक भरोसे के साथ सुरक्षित तरीके से पशुओं को चराकर मालिक के घर भी पहुचाता है। कोई पशु किसी कीे बाड़ी में नुकसान न कर दें या खेत में जाकर फसल न चर ले, इस बात का भी ख्याल रखना बखूबी आता है। चरवाहा छत्तीसगढ़ की संस्कृति और रहन सहन वेशभूषा का वह हिस्सा है, जिसके बिना यहाँ की ग्रामीण परिवेश की कल्पना अधूरी सी है। कृषि और पशुपालन यहा के लोगों के जीवन का प्रमुख आधार है,ऐसे में चरवाहा भी गांव के लोगों के बीच की वह कड़ी है जो कृषि और पशुपालन में अपनी सहभागिता निभाता आ रहा है। समय के साथ पशुपालन में लोगों की अरूचि और कम होती पशुओं की संख्या ने चरवाहों के मन में  असमंजस की स्थिति उत्पन्न कर दी थी। दरअसल वे निर्णय कर पाने की स्थिति में नही थे कि वे अपना पुश्तैनी काम सम्हाले या आने वाली पीढ़ी को इस काम से दूर कर जीवकोपर्जन का नया साधन ढूँढने कहे। असमंजस और रोजी रोटी के लिये नये व्यवसाय की जुगत में लगे चरवाहों को नरवा,गरवा,घुरूवा एवं बाड़ी विकास योजना से एक नई राह मिल गई। गांव-गांव में गोठान बनने से पशुओं को स्वच्छ पेयजल, चारा के साथ छायादार एक निश्चित ठिकाना मिला। वही चरवाहें जो पशुओं को लेकर दिन भर इधर-उधर भटकते फिरते थे, उन चरवाहों को आराम के साथ गोठानों में कई सुविधाएं मिली।
*ईमानदारी और निष्ठा के साथ पूरा करते है अपना काम*
 यूँ तो चरवाहा का काम बहुत आसान सा लगता है। कुछ लोग कह सकते हैं कि बस लाठी लेकर पशुओं को सम्हालना ही तो है, लेकिन सरल और आसान दिखने वाला यह कार्य बहुत ही चुनौती और धैर्य वाला है। ‘पशु’ जो कि मनुष्य की पूरी भाषा या बोल समझ नहीं सकता और ‘मनुष्य’ पशुओं की भाषा को ठीक से नही जान पाता। ऐसे में चरवाहा अपने कुछ शब्दों और बोल के माध्यम से सैकड़ों पशुओं को अपने काबू में रखता है। गाय से दूध दुहना भी जोखिम भरा होता है। अधिकांश पशु मालिक की जगह ये चरवाहें ही दूध दुहने का काम बखूबी कर लेते हैं। कई बार पशुओं के बीच आपसी संघर्ष में उसे सम्हालना सभी के लिये आसान नही रहता। ऐसे विपरीत परिस्थितियों में भी वे पशुओं के बीच आपसी संघर्ष का अंत कर देते हैं। सैकड़ों पशुओं में एक समान सा दिखाई देने वाले पशुओं में कौन सा पशु किसका है ? यह पहचान तो वही कर सकता है जो सभी पर बारीकी से नजर रखता हो। चरवाहें में यह भी गुण विद्यमान होती है, तभी तो ये पशुओं को उसके मालिक के घरों तक ईमानदारीपूर्वक आसानी से पहुंचा पाते हैं। ठंडी और बारिश के मौसम में जब बहुत से लोग घर पर रहना पसंद करते हैं। ऐसे विपरीत मौसम में भी ये अपने कार्यों को बखूबी अंजाम देते हैं। किसी के बाड़ी या खेत में घुसकर कोई पशु फसल को नुकसान न पहुचायें इस बात का ख्याल रखते हुये पूरे समय तक सतर्क रहते हैं और कभी ऐसा हो जाने पर दूसरों का बुरा-भला भी इन्हें सुनना पड़ता है। बहरहाल चरवाहों की ज़िंदगी सूरज निकलने से पहले और सूरज  अस्त होने के साथ किसी मवेशियों की तरह दौड़ती भागती सी लगती है…(कमलज्योति)

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