मुंह में अम्बेडकर, बगल में मनु का त्रिशूल

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नई दिल्ली।
सामान्यतः होता यह है कि जब चुनाव चल रहे होते हैं, तब गुंडे – जिन्हें न जाने क्यों इन दिनों बाहुबली कहा जाता है – भी शराफत की भाव भंगिमा में दिखाने की हरचंद कोशिश करते हैं। लोककथाओं में लिखा है कि जंगल में भी हमेशा-हमेशा के लिए शाकाहारी हो जाने की भेड़िया गारंटी दिए जाने के उदाहरण पाए जाते हैं। मगर मौजूदा निजाम पर काबिज गिरोह की बात ही अलग है ; वह ठीक चुनावों के बीचों बीच भी अपने विभाजनकारी, विध्वंसकारी एजेंडे को पूरी निर्ममता के साथ लागू करने और उसके लिए दमन की किसी भी सीमा को लांघने में ज़रा-सी भी हिचक महसूस नहीं करता। इसका एक उदाहरण इनके एकमेव-झूठमेव प्रचारक नरेन्द्र मोदी हैं, जो फिलहाल प्रधानमंत्री होते हुए भी राजनीतिक मंचों से अत्यंत निचले स्तर की बातें कुत्सित और नफरती भाषा में बोल रहे हैं ; इस कदर बोल रहे हैं कि खुद उनके खासम-खास अपनों से भरे केन्द्रीय चुनाव आयोग को भी उनके भाषणों को लेकर नोटिस जारी करने के लिए मजबूर होना पड़ा है। इस तरह वे पहले ऐसे प्रधानमंत्री बन गए हैं, जिन्हें अपने ही देश की जनता के बीच तनाव तथा विषाक्तता पैदा करने और चुनाव आचार संहिता का आपराधिक उल्लंघन करने के लिए कारण बताओ नोटिस दिया गया है। जब ‘राजा’ का आचरण ऐसा है, तो उसके दरबारी क्या कर रहे होंगे!! पिछले सप्ताह दस दिन में देश के तीन प्रतिष्ठित और बड़े विश्वविद्यालयों में घटी घटनाओं से इसे समझा जा सकता है।

18 अप्रैल को मुम्बई के टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साईंसेज (टिस) में पीएचडी कर रहे दलित छात्र रामदास शिवानंदन को इस ख्याति प्राप्त डीम्ड यूनिवर्सिटी के प्रशासन ने निष्कासित कर दिया। निकालने के साथ ही अगले दो वर्षों तक टिस के तुलजापुर, हैदराबाद, गौहाटी के कैंपस में उनके प्रवेश को भी प्रतिबंधित कर दिया। रामदास इस संस्थान के जाने-माने छात्र नेता हैं। वे प्रोग्रेसिव स्टूडेंट्स फोरम के महासचिव रहे हैं और इन दिनों देश के प्रमुख छात्र संगठन स्टूडेंट्स फेडरेशन ऑफ़ इंडिया (एसएफआई) की केन्द्रीय कार्यकारिणी के सदस्य तथा इसकी महाराष्ट्र राज्य समिति के संयुक्त सचिव हैं। उन्हें निष्कासित किये जाने के जो कारण बताये गए हैं, उन्हें देखकर ही इसके पीछे छुपी नीयत सामने आ जाती है। उन पर पहला आरोप यह है कि उन्होंने शहीदे आज़म भगत सिंह की याद में एक सेमीनार किया, जो बकौल टिस प्रशासन एक “राष्ट्र विरोधी” काम था। दूसरा आरोप यह है कि 26 जनवरी के दिन उन्होंने प्रतिष्ठित फिल्म निर्देशक आनंद पटवर्धन की राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित फिल्म “राम के नाम” को दिखाया और इस तरह राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के प्रति अनादर का परिचय देकर “लोगों की भावनाओं” को ठेस पहुंचाई। तीसरा आरोप है कि उन्होंने देश के छात्र संगठनों द्वारा शिक्षा के अधिकार को लेकर दिल्ली में संसद के समक्ष किये एक प्रदर्शन में भाग लिया और इस तरह “संस्थान की इज्जत और प्रतिष्ठा” को नुकसान पहुंचाया। इस तरह की अनुशासनात्मक कार्यवाहियों के लिए जो समिति अधिकृत है, उसमें स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष भी होते हैं, मगर प्रशासन ने उन्हें सूचना तक नहीं दी थी।

महाराष्ट्र के वर्धा में स्थित केन्द्रीय विश्वविद्यालय – महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय — में सात प्रोफेसर्स को कारण बताओ नोटिस थमा दिए गए। इनमें से अब तक चार के खिलाफ दंडात्मक कार्यवाही भी की जा चुकी है। इनका ‘अपराध’ यह था कि ये हर गुरुवार की शाम 6 बजे विश्वविद्यालय परिसर में बाबा साहब अम्बेडकर की प्रतिमा के नीचे इकट्ठा होते थे। डॉ. अम्बेडकर के किसी लेख या किताब के अंश को पढ़ा जाता था और उसके बाद सभी उस पर चर्चा करते थे। इसे आम भाषा में स्टडी सर्किल कहा जाता है। इसकी शुरुआत फरवरी 2022 में अम्बेडकर स्टडी सर्किल इंडिया ने की थी और अब तक इसके 61 सत्र हो चुके थे। इस आयोजन में भाग लेने वाले, दलित समुदाय से आने वाले प्रोफेसर्स को दिए आरोप पत्र में विश्वविद्यालय के रजिस्ट्रार कठेरिया ने दावा किया कि “अम्बेडकर पाठ का यह कार्यक्रम इसमें भाग लेने वाले छात्रों की सुरक्षा और स्वास्थ्य तथा विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को खतरे में डाल सकता है।“ उन्होंने इसमें भाग लेने प्रोफेसर्स से इसके आयोजन के लिए खेद व्यक्त करने के लिए कहा, उनके ऐसा न करने पर अब तक दो को ट्रांसफर और दो प्रोफेसर्स को उनके पद से हटा दिया जा चुका है।

लखनऊ के बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर केन्द्रीय विश्वविद्यालय में 25 अप्रैल की आधी रात पुलिस ने छापा मारकर भूख हड़ताल पर बैठे 26 छात्रों को गिरफ्तार कर लिया, इनमे दो नाबालिग और दो महिलायें भी थीं। मसला यह था कि जब इन छात्रों ने हर वर्ष की तरह इस बार भी अम्बेडकर जयंती पर शोभा यात्रा निकालने की अनुमति माँगी, तो वह चुनाव आचार संहिता का बहाना बनाकर नहीं दी गयी। इस पर छात्रों ने वीसी और प्रॉक्टर से यह आश्वासन माँगा कि वे रामनवमी के दिन होने वाले आयोजन की अनुमति भी नहीं देंगे। प्रशासन ने वादा भी किया, लेकिन जब इसी परिसर में रामनवमी के दिन बाकायदा लाउडस्पीकर और डीजे लगाकर धमाल मचाया जाने लगा, तो प्रॉक्टर से बातचीत करने के लिए पहुंचे छात्रों पर सुरक्षा गार्डों के जरिये हमला करवा दिया गया। गिरफ्तार किये गए एस एफ आई नेता अब्दुल वहाब के अनुसार इस हमले में कई छात्रों को चोट भी आयी है, एक छात्र की रीढ़ की हड्डी में भी चोट है। मारपीट करते समय सुरक्षा गार्डों का मुखिया खुद को ‘कुंडा का ठाकुर’ बताते हुए जाति सूचक गाली-गलौज करता रहा। इस हमले को करवाने वाला आरएसएस से जुड़ा प्रॉक्टर यूं तो दलित समुदाय से है, लेकिन अम्बेडकर और उनकी जयंती मनाने वालों को इसलिए देशद्रोही मानता है, क्योंकि उन्होंने मनुस्मृति जलाने का राष्ट्रद्रोही काम किया था। इस हमले के जिम्मेदारों के खिलाफ कार्यवाही और प्रॉक्टर को हटाने की मांग को लेकर विश्वविद्यालय का दलित छात्र संगठन और एसएफआई के नौ दिन से चल रहे आन्दोलन और भूख हड़ताल को हटवाने के लिए थाने में जमानती धारा के अंतर्गत हुयी गिरफ्तारी के बावजूद लखनऊ पुलिस ने सभी गिरफ्तार किये गए छात्रों को दो दिन तक जेल में बंद रखा। लखनऊ के अनेक जागरूक संगठनों तथा वरिष्ठ नागरिकों के हस्तक्षेप के बाद जाकर उनकी रिहाई हो पाई।

इस बीच इसी से मिलती-जुलती एक खबर संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) से आई है कि जहाँ डॉ. अम्बेडकर की जयंती के मौके पर 18 और 23 अप्रैल को दो समारोह आयोजित किये गए थे। आयोजकों के अनुसार यह पहला मौक़ा था, जब किसी शख्सियत के सम्मान में एक साथ दो आयोजन हुए। फाउंडेशन फॉर ह्यूमन होराइज़न द्वारा किये गए इन कार्यक्रमों में अनेकों ने भाग लिया, किन्तु अमरीका में भारत के राजदूत और यूएनओ में भारत के प्रमुख इनमें से किसी में भी नहीं पहुंचे। उनके द्वारा अपनी इस अनुपस्थिति की वजह भारत में चुनावों का होना बताया गया।

इस कुनबे के द्वारा अम्बेडकर के साथ यह बर्ताब कोई आज की बात नहीं है। चुन-चुन कर उनकी मूर्तियाँ गिराना ; दादर में जिस सेंटर को बाबा साहब ने खुद बनाया था और जो अंतिम समय तक उनकी गतिविधियों का केंद्र और पता था, उसे गिरवा दिया जाना ; दिल्ली सरकार के एक मंत्री द्वारा अम्बेडकर की 22 प्रतिज्ञाओं का पाठ करने पर उसके खिलाफ तूमार खड़ा करके उसे मंत्रीमंडल से हटवाना ; गुजरात की पांचवी कक्षा की किताब से उनका पाठ हटवाने से लेकर जहां भी चली वहां से उनके साहित्य को कोर्स में से हटवा देना जैसी अनेक कारगुजारियां आरएसएस की राजनीतिक भुजा भाजपा की मोदी सरकार और प्रदेशों में चलने वाली सरकारों ने की हैं। इनके बारे में पहले भी कई बार इस जगह लिखा जा चुका है। मार्क्सवादी विचार को मानने वाले और साम्प्रदायिकता के खिलाफ मुखरता के साथ लिखने-बोलने वाले भगत सिंह से डर लगना इस कुनबे के स्वभाव में है। तब के संघ प्रमुख ने उनकी फांसी के बाद जो नकारात्मक टिप्पणी की थी और अपने स्वयंसेवकों को इन क्रांतिकारियों से दूर रहने की जो हिदायतें दी थी, वे दस्तावेजों में दर्ज है। मगर आरएसएस और उसके मनुवादी हिन्दू राष्ट्र के धुर विरोधी, रिडल्स ऑफ़ हिंदूइज्म सहित कई ग्रंथों में वर्णाश्रम और जाति श्राप की धज्जियां उड़ाने वाले, आखिर में “मैं हिन्दू पैदा हुआ हूँ, मगर हिन्दू के रूप में मरूंगा नहीं” कहकर बौद्ध धर्म अपनाने वाले अम्बेडकर को तो बावजूद सब कुछ के अभी तक उनके शीर्ष नेता सार्वजनिक रूप से धिक्कारने या नकारने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। अलबत्ता बिना किसी विराम के मुंह में अम्बेडकर, बगल में मनु का त्रिशूल की धूर्तता लगातार जारी रखते हैं। इस लोकसभा चुनाव के अभियान में यही हो रहा है – इधर टिस मुम्बई, वर्धा और लखनऊ में मनु का त्रिशूल घोंपा जा रहा है, उधर मोदी अपनी उठी हाट को बचाने के लिए बाबा साहब की दुहाई देते नहीं थक रहे, उनके बहाने भी अपना हिंदू-मुस्लिम खेल खेलने की कोशिश कर रहे हैं।

राजस्थान में टोंक और सवाई माधोपुर की चुनाव सभाओं में झूठ, सफ़ेद झूठ और इनसे भी ज्यादा खतरनाक आधा सच बोलकर नफरती उन्माद फ़ैलाने की अपनी मुहिम जारी रखते हुए नरेंद्र मोदी बोले कि “2004 में यूपीए की सरकार के दौरान एससी/एसटी के कोटे के आरक्षण में से मुसलमानों को आरक्षण दे दिया गया।“ इसके बाद उन्होंने आंध्रप्रदेश, कर्नाटक जैसे राज्यों का भी जिक्र किया और इस तरह इस बार हिन्दू-मुस्लिम के अपने घिनौने खेल में दलित, आदिवासियों को भी शामिल करने की कोशिश की। ऐसा नहीं कि मोदी नहीं जानते कि दलित, आदिवासियों को मिलने वाला आरक्षण संविधान प्रदत्त और अपरिवर्तनीय है, इसमें कोई काट-छांट या कमी बेशी नहीं की जा सकती। वे यह भी अच्छी तरह जानते हैं कि इन कोटों के लाभ से एससी/एसटी को वंचित करने के लिए उनके राज में केंद्र सरकार और उसके नियंत्रण में चलने वाली संस्थाओं ने टुकड़ों-टुकड़ों में कम-कम संख्या की भर्ती निकालने और ऐसा करके आरक्षण देने से बचने की तिकड़म ईजाद की है, भाजपा की प्रदेश सरकारों ने भी इसे आजमाया है। बाकी जगह एससी/एसटी की पोस्ट्स “योग्य व्यक्ति न मिलने” का बहाना गढ़ कर खत्म करने और बाद में उन्हें अनारक्षित बनाकर भरने का रास्ता भी अपनाया है। यही मोदी की सरकार है, जिसने अंधाधुंध तरीके से सार्वजनिक उपक्रमों और सरकारी कामकाज का निजीकरण कर दिया है, जहां अब आरक्षण मिलने का कोई प्रावधान ही नहीं है। ठेका और संविदा भर्ती को धुंआधार बढ़ावा दिया है, जो ऐसी नियुक्तियां हैं, जिनमें रिजर्वेशन का कोई नियम नहीं बनाया गया। ध्यान रहे, यह सब अनुसूचित जाति और जनजातियों के आरक्षण की स्थिति है, जिसका बाध्यकारी संवैधानिक बन्दोबस्त है और जिसे कोई नरेंद्र मोदी या अमित शाह नहीं बदल सकता ; मगर उसके बाद भी पतली गलियाँ और चोर दरवाजे ढूंढ कर मनु के कहे को अमल में लाया जा रहा है। खुद मोदी सरकार की नई शिक्षा नीति में एससी/एसटी को दिए जाने वाले आरक्षण के सवाल पर चुप्पी ही नहीं है, उसे गोलमोल कर सभी वंचित समूह कर दिया गया है, जिनमे मानसिक एवं शारीरिक रूप वंचना के शिकार भी शरीक है। इसका अर्थ यह हुआ कि अनुसूचित जातियों और आदिवासियों की असली वंचना की एकदम अलग तरह की स्थिति गिनती में ही नहीं ली जायेगी। यह है आरक्षण के खात्मे का प्रबंध। ऐसा करने के बाद भी मोदी चुनाव सभाओं में यह कर कि “इस आरक्षण को छीनकर को मुसलमानों को दे दिया जाएगा”, ध्रुवीकरण और उन्माद भडकाने की नयी कुटिलता बरतते जा रहे है।

पिछड़ी और अति-पिछड़ी जातियों के कोटे में इनमें आने वाले मुस्लिम समुदाय के एक हिस्से को दिए जाने वाले आरक्षण को अनुसूचित जाति, जनजाति के कोटे से गड्डमड्ड करके बताना सिर्फ डेढ़ सियानपट्टी नहीं है – इसमें असली सच को छुपाने की हरकत के साथ पाखण्ड भी समाहित है। जिस कर्नाटक में ओबीसी में आने वाले मुस्लिम समूहों को आरक्षण देने का आज रोना रोया जा रहा है, उस आरक्षण को देने का श्रेय अपनी हर आमसभा में वे एच डी देवेगोड़ा लेते हुए घूम रहे हैं, जिनके और जिनकी पार्टी जेडी (एस) के साथ मिलकर मोदी चुनाव लड़ रहे हैं। यह आरक्षण सबसे पहले उन कर्पूरी ठाकुर ने दिया था, जिन्हें बिहार के मतदाताओं को लुभाने के लिए अभी चुनाव के ठीक पहले खुद मोदी ने भारत रत्न दिया और उनके परिजनों के साथ फोटू खिंचवाते हुए उन्हें देश में सामाजिक न्याय का पुरोधा बताया। इनकी छोड़ भी दें, तो ओबीसी कोटे में पिछड़ी जातियों में आने वाले मुस्लिम समुदाय के नागरिकों को आरक्षण मोदी के गुजरात में भी मुस्लिम समुदाय की 70 जातियों को मिलता है। स्वयं मोदी ने एक टीवी इंटरव्यू में दावा किया था कि गुजरात में मुख्यमंत्री रहते हुए उन्होंने न केवल इस आरक्षण का लाभ दिया जाना सुनिश्चित किया, बल्कि इनमें 12 अन्य जातियों के नाम और जुड़वाये। इसके बाद भी झूठ-दर-झूठ बोलने के पीछे का मकसद साफ़ है। हालांकि अब वे खुद “इस बार – 400 पार” का नारा देना भूल चुके हैं, मगर उस नारे के पीछे छुपी संविधान बदलने की ताकत हासिल करने की कलुष नीयत भारत के लोगों के बीच पहुँच चुकी है। जाति आधारित जनगणना न कराने के पीछे का मकसद भी लोग समझ चुके हैं। मंदिर का उफान तो चढ़ने के पहले ही फुस्स हो चुका था। तामझाम से दी गयी मोदी की गारंटी की बात तो सप्ताह भर भी नहीं चल पाई। पहले चरण के मतदान के बाद खुद मोदी ने ही उसे कहना बंद कर दिया। दूसरे चरण के मतदान के बाद पाँव तले की जमीन खिसकती देख अब ओढ़ी हुयी खाल उतर रही है, चुनाव भर में दिखाने के लिए रंगा गया रंग फीका पड़ रहा है, इसलिए दिखाने के दांतों को उतारकर अब यह कुनबा खाने के असली दांतों के साथ सामने आ गया है। मंचों से हिन्दू-मुस्लिम का गरल बहा रहा है, वर्धा से लखनऊ तक अम्बेडकर, संविधान और भगतसिंह को याद करने वालों को डरा धमका रहा है। एक चुनाव जीतने के लिए इतने निचले स्तर तक जाकर मोदी और कुनबे ने बता दिया है कि अगर भूल से भी ये तीसरी बार सत्ता में आ गए, तो इस 140 करोड़ आबादी वाले देश का क्या हाल करेंगे।

कुनबा अगर विभाजन, फूट, नफरत फैलाने की अपनी एकमात्र गारंटी पर आ गया है, तो देश की जनता को भी बाकी चरणों के मतदान को इसका वारंटी कार्ड बनाना होगा और इनके कंधे पर सत्ता से विदाई का झोला टांगना होगा ।


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