दादा नुकुल देव ढीढ़ी स्मृति दिवस पर याद कर उनके बताएं रास्ते पर चलना का लिया संकल्प
रायपुर 17 अगस्त 2023
सतनामी समाज के समाज सेवक कमल कुर्रे ने बताया कि रायपुर के अम्लीडीह में दादा जी पुण्यतिथि के रूप में आयोजन कर उनके कीए हुए कार्य को याद करते हुए, आगे समाज सेवा में समर्पित होकर कार्य करने के लिए संकल्प लिया इस अवसर पर समाज में आगे बढ़ कर काम करने वालो समाजिक कार्यकर्ता 7 लोगो को गमछा, श्रीफल, प्रस्तिति पत्र देकर सम्मान किया गया उपस्थित मुख्यरूप से पौत्र श्री वीरेन्द्र ढिढ्ढी जी भांजन जांगड़े, केवल खांडे, प्रेम गेंद्रे,भागवत पात्ते, स्तूहन,, शिव टंडन मोनी कठोत्र, कुमार महेश्वर, लक्ष्मीदास कुर्रे, गंगाराम जांगड़े, बल्लदु रातें, जीवन कोसरिया राकेश जांगड़े, प्रवीन सोनवानी, शेखर एवम बड़ी संख्या बढ़ी समाज के लोग शमिल हुए, और उनके जीवन के बारे मै विस्तार से बताए की
सन 1860 ईस्वी मे गुरु बालकदास जी के शहादत के बाद सतनामी संघ एक महाशक्ति से चौतरफा षडयंत्रों के कारण टुट चुका था. सतनामी समुदाय असंगत विचारधारा के प्रभाव मे अपने मूल संस्कृति को पुरी तरह भूल या भूला दिया गया था. इसके बावजूद आजादी की लड़ाई में हजारों सतनामी फ्रीडम फायटरों ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह किया जिनमे से कुछ सेनानियो का उल्लेख मिलता है अधिकांश को गुमनामी के गर्त मे धकेल दिया गया.आजादी 1947 के बाद अंग्रेजों के स्थान पर भारतीयों ने शासन सत्ता अपने हाथ मे ले लिया था. लेकिन जिस तरह सतनामियों को उपेक्षित किया गया उनके ऊपर अन्याय अत्याचार और शोषण किया गया उससे सतनामी ठगे से रह गए.
आजादी के पहले एक महान व्यक्तित्व का जन्म हुआ जिन्होंने आजादी के पहले और बाद के वर्षों तक सतनामी पुनर्जागरण का कार्य किया. उनके बारे मे उनके पोते बीरेंद्र ढीढ़ी का लेख पढ़ें. कुमार लहरे महासचिव एसपीएम
*दादा नकुल ढीढी जी के विचारो की जय हो।*
साथियो, दादा नकुल ढीढी के विचारों की जय हो कथन को लिखते हुए ,सन 1927 में कोलम्बिया यूनिवर्सिटी के पुस्तकालय के दीवार पर दो कथन लिखे गए थे उसको बताना मैं जरूरी समझता हुँ,
1- आम आदमी पैदा होता है और मर जाता है|
2- महापुरुष पैदा होते है और कभी नही मरता है|
बाबा साहब अम्बेडकर ने दूसरा कथन को काली स्याही से काट दिया, यूनिवर्सिटी में हंगामा हो गया कि किसने काटा है , यूनिवर्सिटी प्रशासन मीटिंग बुलाई और पूछा किसने दूसरे कथन को काटा है तब बाबा साहब ने कहा कि मैं दूसरे कथन से सहमत नही हुँ इसलिए काट दिया क्योंकि महापुरुष के विचार को नष्ट कर दिया जाय तो महापुरुष भी मर जाता है इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी का विचार को खत्म किया जाय तो वह व्यक्ति खत्म हो जाता है। इसलिए मैंने दादा नकुल ढीढी के विचार की जय हो लिखा।
मैं विचार कर रहा था कि एक चौथी पास व्यक्ति, एक साधारण परन्तु सम्यक सम्पन्न कृषक का बेटा , जिनके अनजाना सा पूर्वज जिनकी कोई ख्याति नही, कोई गुरु वंशज नही कोई ख्याति प्राप्त वंश नही ,शासन, प्रशासन और सत्ता से भी दूर दूर का कोई वास्ता नही, और तो और उनके राजनैतिक विरोधी, सामाजिक विरोधी के द्वारा राह में रोड़ा अटकाने और व्यवधान पैदा करने के बावजुद अपने संघर्ष के कारवां को सफल बनाकर उस स्थिति तक खींच कर ले गया जहाँ आज हम गर्व महसूस करते है और कहते है कि समाज के परम सम्माननीय मंत्री नकुल ढीढी जी जो गुरु बाबा घासीदास जी की जयंती 18 दिसम्बर की शुरूआत कर और बाबा जी के छुपे हुए सतनाम मार्ग को पुनः उजागर कर पूरे सतनामी समाज को एकता के सूत्र में बांध दिया। ऐसे संघर्षशील महापुरुष को उनके पुण्यतिथि दिनाँक 16 अगस्त को दुःखद संवेदना व्यक्त करते हुए विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हुँ।
अब मैं दूसरी तरफ दादा जी के तत्कालीन समय मे, सामाजिक स्थिति,परिस्थिति और व्यवस्था को भी बताना जरूरी समझता हुँ, तभी दादा नकुल ढीढी जी के द्वारा किये गए कार्यो का तुलनात्मक मूल्यांकन किया जा सकता है।
सतनामी समाज छत्तीसगढ़ में प्रमुख जाति है और जनसंख्या के दृष्टिकोण से विशाल भी है। सतनामी समाज उस समय के रायपुर , बिलासपुर, रायगढ़ और दुर्ग जिला में व्यापक रूप से निवास करते थे। उस समय सतनामी समाज अभिवादन के रूप में “साहेब सतनाम” कहकर आपस मे मिलते थे और आज भी करते है परन्तु सभी धार्मिक संस्कार और त्योहार हिन्दू धर्म का ही मानते थे और लगभग आज भी मानते है, बावजूद हिन्दू पारा और सतनामी पारा का स्पष्ट विभाजन दिखता था और उच्चारण भी अन्य लोगो के द्वारा करते थे, छुआछूत का विकराल रूप गॉव गाँव मे मौजूद था, नहाने के घाट, पीने के पानी के घाट अलग होता था, सतनामी पर अत्याचार करने के लिए सभी अन्य समाज के लोग एक हो जाते थे, नौकरी पेशा लोगो को रहने के लिए घर किराया पर नही मिलता था, होटल में नाश्ता करने के बाद प्लेट धुलवाया जाता था, सतनामी पर अत्याचार होने पर रिपोर्ट भी नही लिखते थे और लिखते थे तो पूरी तरह मामला को समाप्त करने के लिए भरपूर कोशिश करते थे, सतनामी समाज, ज्यादातर गॉव में रहते तो थे परन्तु अलग अलग विभाजित होकर पांघर बनाकर रहते थे एकता का अभाव था। रायगढ़-सारंगढ़ क्षेत्र में तो सतनामी समाज, रामनामी समाज बनकर राम जी की जय जय कार करते थे उस क्षेत्र में साहेब सतनाम का भी अभिवादन नही होता था, बिलासपुर क्षेत्र में गुरुओ का प्रभाव था परन्तु बाबा घासीदास जी के बारे में अनभिज्ञ थे, कृष्ण की पूजा होती थी और रास लीला का मण्डली बनाकर हिन्दू धर्म के ही देवी देवताओं को पूजते थे। दुर्ग और बिलासपुर जिला के कुछ क्षेत्र जैसे कि मुंगेली, बेमेतरा और नवागढ़ क्षेत्र में गुरुओ का प्रभाव होते हुये भी ज्यादा मारकाट और हत्या का प्रकरण इन्हीं इलाका में दर्ज होता था, अपने ही लोगो में आपसी अकड़ के कारण और अन्य लोगो के साथ जाति वादी मानसिकता के कारण रंजिश होंना इसका प्रमुख कारण था। इस क्षेत्र में भी तत्कालीन रामत घूमने वाले गुरु को सादर सम्मान करते थे परन्तु यहां भी गुरु घासीदास जी, गुरु बालकदास जी, गुरु अमरदास जी के बारे में अनजान थे, इस बात की पुष्टि दादा नकुल ढीढी जी ने बाबा गुरु घासीदास जी के जन्म तारीख खोजते समय किया था।
सतनामी समाज के कई घरों में छोटा जैतस्तम्भ होता था इसे निशाना भी कहते है, जिस पर जन्माष्टमी के दिन और होली के दिन नया पताका चढ़ाते थे, लोगो को इस दिन पताका चढ़ाने के बारे में पूछते थे तो अनभिज्ञयता जाहिर करते थे और कुछ भी कारण नही बताते थे। दादा नकुल ढीढी जी बताया करते थे कि गुरु बाबा जी के इतिहास और जन्म दिनाँक खोजने के लिए लगभग पूरे छत्तीसगढ़ का दौरा किये उनके तथाकथित रावटी के स्थान पर गये परंतु वहाँ जंगल झाड़ी के सिवाय कुछ भी नही मिला, कुछ प्रचलित कथा, सामाजिक अवधारणा और कुछ ऐतिहासिक तथ्य के अनुसार गुरु बाबा घासीदास जी की जन्मदिन 18 दिसम्बर 1756 को तय किया गया।
दादा जी यह मानते थे कि गुरु बाबा जी एक ऐसे सन्त थे जो शोषित समाज को प्रजातांत्रिक तरीके से एकता के सूत्र में बांधकर सतनाम पंथ चलाया और समाज मे व्याप्त कुरूतियों को मिटाने तथा अंधविश्वास को नही मानने के लिए लोगो को जागरूक किये। कई जातियॉ को अपने पंथ में शामिल किया जो शोध का विषय है। बाबा जी के समय भी सतनामी समाज छुआछूत और प्रताड़ना के शिकार थे। दादा नकुल ढीढी जी बताते थे कि गुरु बाबा जी के कार्य और आंदोलन के कारण ही अंग्रेजी शासन ने, उनके द्वितीय पुत्र बालकदास जी को राजा की पदवी देकर सम्मानित किए थे ताकि अन्य जाति के लोग सतनामी से छुआछूत का व्यवहार न कर सके और प्रताड़ित भी न कर सके, परन्तु अन्य जाति के लोग बालकदास जी को राजा ही नही मानते थे, गुरु बालकदास जी राजा की पदवी पाकर राजा की भांति व्यवहार कर अपनी शानो शौकत बनाये रखा, तेलासी बाड़ा, बोड़सरा बाड़ा, रायपुर बाड़ा, का राजमहलो जैसे भव्यता दिखना इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है गुरु बाबा घासीदास जी की प्रजातांत्रिक संघर्ष अब गुरु बालकदास जी तक आते आते राजतंत्र में परिवर्तन हो चुका था, सत्य अहिंसा की लड़ाई अब तलवार की लड़ाई बन गई थी। गॉव गॉव में साटिदार और भंडारी को नियुक्त करते थे जो केवल राजा गुरु के लिए ही कार्य करते थे, बहुत बाद मे साटिदार और भण्डारी का कार्य समाजिक संस्कार सम्पन्न कराने के कार्य का रूप लिया। दादा नकुल ढीढी जी मानते थे कि जो कार्य गुरु बाबा घासीदास जी ने प्रजातांत्रिक ढंग से शुरुआत किया था वह कार्य गुरु बालकदास जी के समय राजतांत्रिक बनकर व्यक्ति पूजा में परिवर्तन हो गया तथा राजतंत्रीय व्यवस्था बनने के कारण संघर्ष का रूप अवनति की ओर जाने लगा और यही से ही गुरु प्रथा प्रारंभ होकर वंश पूजा हो गया, और जो अन्य जाति के लोग बाबा जी से प्रभावित होकर सतनाम पंथ में शामिल हुए थे उन्ही जाति के लोग पुनः एक बार सतनामियों को छुआछूत करने लगे और प्रताड़ित भी करने लगे, इसका परिणाम यह हुआ कि गुरु बालकदास जी की हत्या तक कर दी गई। जो आंदोलन और व्यवस्था गुरु घासीदास जी ने दिया था वह धरासायी होकर विलुप्त हो गया था और समाज पुनः उसी स्थिति में आ गया था जहां पहले के स्थिति में था। दादा जी गुरु अमरदास जी के बारे में बताते हुए तार्किक व्याख्या देते थे और कहते थे कि गुरु अमरदास जी का या तो सामाजिक कार्य मे ज्यादा रूचि नही रहा होगा या वनगामी जीवन बिताने के कारण जैसे कि उनके बारे में बात प्रचलित है, अंग्रेजी शासन ने गुरु बाबा घासीदास जी के द्वितीय पुत्र को राजा की पदवी से नवाजा, अन्यथा प्रथम पुत्र के होते हुए द्वितीय पुत्र को राजा की पदवी नही देते।
दादा नकुल ढीढी जी बताया करते थे कि वह गुरु बाबा घासीदास जी की ही जयन्ती का शुरुआत क्यों किया, अन्य गुरु वंशजो का क्यों नही किया क्योकि वंशवाद, ही नायकवाद को जन्म देता है जो समाज के लिए ठीक नही है जैसे कि ब्राह्मण वाद की व्यवस्था जो पूरी तरह भारत के सामाजिक व्यवस्था को तहस नहस करके रखा हैं। इसीलिए काफी विचार और अध्ययन के बाद गुरु बाबा घासीदास जी के जयंती की शुरुआत किया जो आज सतनामी समाज की धरोहर है। यहां पर यह उल्लेख करना जरूरी समझता हूं कि जब दादा जी गुरु बाबा घासीदास जी की जयन्ती की शुरुआत किया था तब समाज की वही स्थिति थी जब गुरु बाबा जी ने आंदोलन की शुरूआत की थी अर्थात यह कहने में कोई संकोच और छुपाव नही होना चाहिए कि आज सतनामी समाज में जो भी एकता, उमंग, साहस और जज़्बा दिखाई देता है वह दादा नकुल ढीढी जी के 18 दिसम्बर गुरु बाबा जी के जयन्ती शुरू करने के बाद आई और आज सतनाम पंथ या धर्म पुनः जो स्थिति में खड़ा है उसका भी कारण दादा नकुल ढीढी जी ही है क्योकि पूर्व के सभी आंदोलन मृतप्रायः हो चुका था और सतनामी समाज अश्पृश्यता और प्रताड़ित होने के बावजूद हिन्दू धर्म के सभी मान्यताओं और आस्थाओ मानते थे।
दादा नकुल ढीढी जी कहा करते थे कि जब गुरु बाबा घासीदास जी की जयंती, गांव गांव और घर घर में मनाना शुरू हो जाएगा तब लोग मुझे भुल जाएंगे और यह बात सही है कि प्रायः अब सभी जगह में गुरु बाबा जी की जयंती तो मनाते है परन्तु जयंती को किसने समाज मे लाया और क्यो इसकी जरूरत पड़ी, इस बात का जिक्र तक नही करते इससे हमारे आने वाले नवयुवक साथियों को अपने इतिहास के बारे में पता नही चलता और वास्तविक तथ्यों से अनभिज्ञ रह जाते हैं। यहां मैं यह भी बताना जरूरी समझता हूँ कि कुछ समाज के तथाकथित लेखक और जो परम्परा वादी विचारधारा के लोग, दादा जी के द्वारा किये गए संघर्ष को सही जानकारी के अभाव में गलत धारा में ले जाकर बदनाम भी करते हैं। परन्तु आज इस दुःखद दिन पर हम शपथ लेते है कि दादा जी के अधूरे सपने को पूरा करेंगे और गांव गांव में 12 अप्रैल उनके जन्मदिन पर और 16 अगस्त उनके पुण्यतिथि पर कार्यक्रम का आयोजन कर समाज को उनके कार्य और संघर्ष के बारे में अवगत करायेंगे।
दादा नकुल ढीढी जी ने बहुत ही कम उम्र 16 वर्ष से ही संघर्ष की शुरुआत 1930 में ग्राम तमोरा में जंगल सत्याग्रह से किया था, भरपूर व्यक्तित्व के धनी होने के कारण दादा जी 16 साल के उम्र में बहुत बड़े लगभग 25-26 साल के गबरू जवान लगते थे। छत्तीसगढ़ में जब रामचरितमानस के दोहा और चौपाई गांव गांव और घर घर मे गुंजायमान हो रहे थे तब उन्होंने भी सन 1932 में अपने गांव भोरिंग में राम लीला मण्डली का गठन किया और राम लीला के माध्यम से अपने धार्मिक छवि को प्रस्तुत किया तथा खुद भी रामचरित मानस और अन्य हिन्दू धर्म के ग्रंथ को कंठस्थ कर समाज मे प्रचारित किये जो आगे चलकर उनका व्यक्तित्व धर्म के जानकार के लिए काफी प्रसिद्ध हुआ, उस समय मे तथाकथित हिन्दू पंडित भी धार्मिक बहस करने में उनसे भय खाते थे।
सन 1935-36 में ग्राम भोरिंग में बहुत ही बड़ा विद्वान और लगभग सभी धर्मों के ज्ञाता और अच्छी व्याख्या करने वाले श्री एम डी एम सिंह नामक व्यक्ति का आगमन हुआ। श्री एम डी एम सिंह जी ने गुरुकुल कांगड़ी विद्यालय के माध्यम से, दादा नकुल ढीढी और उनके अन्य साथियो को सभी धर्मों की किताब को पुनःपढ़ा कर सही व्याख्या किये, धार्मिक किताबों में लिखे गए उस ऋचा, पद, दोहा को बताया जो मानव समाज को कई भागों में बांटकर ऊंच नीच का प्रपंच रचा, पुराणों में देव और दानव के युद्ध को समझाया देव कौन था और दानव किसको कहा गया, बतलाया। हिन्दू धर्म के सभी धार्मिक क़िताबों जैसे कि चार वेद, वाल्मीकि रामायण, गीता, रामचरित मानस, मनुस्मृति इत्यादि को पुनः पढ़ाया साथ मे यह भी बताया कि आपके सतनामी समाज मे भी महान संत हुए है जिनका नाम गुरु घासीदास है और सतनाम पंथ चलाया है और उनका जन्म स्थल गिरौदपुरी है। इसी दौरान 1935 में गिरौदपुरी गए और बाबा जी के जन्म दिनाँक खोजने का प्रयास किये परन्तु वहाँ कुछ भी जन्म सम्बन्धित प्रमाण नही मिला, तब बाबा गुरु घासीदास जी की जन्मदिन खोजने के लिए दादा नकुल ढीढी ने गजेटियर रायपुर, बिलासपुर और कलकत्ता तक का दौरा किये। अंत मे कुछ सूत्रों के आधार पर 18 दिसम्बर सन 1756 को गुरु बाबा घासीदास जी के जन्म दिनाँक मानकर, 18 दिसम्बर सन 1938 को अपने गृह ग्राम भोरिंग में प्रथम जयन्ती का आयोजन किये
सन 1939-48 तक 10 वर्ष दादा नकुल ढीढी जी का जीवन, स्वतंत्रता आंदोलन, समाजिक संघर्ष जैसे कि छूआछूत के विरूद्ध लड़ना, नाई धोबी के लिए लड़ना, पानी के लिए लड़ना, नहाने के घाट के लिए लड़ना, मन्दिर में प्रवेश के लिए लड़ना, गुरु बाबा जयंती का आयोजन करना, बिखरे समाज को एकता के सूत्र में बांध कर रखना और शोषण के खिलाफ सभा करना तथा इनसे सम्बन्धित मुकदमो में हाज़िर होना इत्यादि रहा है। बाद में बाबा साहब अम्बेडकर के पार्टी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन में शामिल होने के कारण स्वतंत्रता संग्राम सेनानी से नाम तत्कालीन सत्तासीन लोगो ने हटा दिया, क्योकि छत्तीसगढ़ में केवल कांग्रेस से सम्बंधित लोगो को ही स्वतंत्रता संग्राम सेनानी माना गया है
सन 1949-50 यह दो वर्ष दादा नकुल ढीढी जी के जीवन के महत्वपूर्ण वर्षों में गणना की जाती है, 1949 में एक घटना के कारण उन्होंने शपथ लिया कि जब तक सभी गांव में नाई, सतनामी समाज के लोगो का हजामत नही बनाएंगे तब तक वे अपना मूँछ दाढी और सिर के बाल नही बनाएंगे और उन्होंने आजीवन मूंछ दाढ़ी और केश कर्तन नही करवाया। इसलिए कई लेखकों ने उन्हें भीष्मपितामह की उपाधि दिया है, इसी वर्ष उन्होंने गरीब छात्रों के लिए अपने खर्च से महासमुन्द में छात्रावास चलाये। यह वर्ष राजनैतिक गतिविधि का भी वर्ष रहा है, उन्होंने बाबा साहब द्वारा निर्मित पार्टी शेड्यूल कॉस्ट फेडरेशन का सदस्यता ले लिया और बाबा साहब के साथ मिलकर काम करने का भी संकल्प लिया।
सन 1950 में उन्होंने पहली बार सार्वजनिक रूप से समाज के लोगो से अपील कर आह्वान किया कि गुरु बाबा घासीदास जी की जयंती गाँव गाँव मे मनाये और कहा कि गुरु बाबा घासीदास ही हमारा ईस्ट देव है और कोई ईश्वर हमारा नही है सभी ईश्वर और भगवान तथाकथित उच्च वर्गो के द्वारा अपने पेट पालने के लिए बनाया है। समानांतर में सामाजिक सुधार की गतिविधि का भी कार्य चलते
सन 1951-54 यह वर्ष दादा नकुल ढीढी के जीवन दो राह जिंदगी में प्रवेश का रहा है, एक सामाजिक जीवन एवं और दूसरा राजनैतिक जीवन में प्रवेश का अनुभव का वर्ष रहा है, सन 1951 में दादा नकुल ढीढी जी को बाबा साहब अम्बेडकर ने अपने पार्टी शेड्यूल कास्ट फेडरेशन का रायपुर लोकसभा से प्रत्याशी बनाया जो कि भारतवर्ष का पहला आम चुनाव था, उस चुनाव में दादा नकुल ढीढी ने 35702 वोट पाकर लगभग 15 प्रतिशत वोट हासिल किया था और जमानत बचा लिया था, चुनाव हार गए थे, इस चुनाव के बाद दादा नकुल ढीढी को देश मे भी जानने लग गए और कई नामी लोग ग्राम भोरिंग में आने लगे, इससे बाबा गुरु घासीदास जी की विचारों को फैलाने में ज्यादा से ज्यादा प्रचार मिला। सन 1954 में अन्न सत्याग्रह करके श्री विनोबा भावे जी को भूदान में मिले जमीनों को सतनामियों में बांटने के लिए आंदोलन किये और इसी वर्ष पहली बार गुरु बाबा घासीदास जी की जयन्ती की छुट्टी घोषित करने की भी मांग किया
सन 1955-61तक दादा जी जीवन का अति संघर्ष काल रहा है, इस काल मे उन्होंने गुरु बाबा जी को समाज मे स्थापित कर अपने वैचारिक प्रतिद्वंद्वी को भी जीतने का कार्य किया, सन 1955 में जिन गुरुओं ने भंडारपुरी में गुरु बाबा जी की जयंती का विरोध किया था वे सभी लोग सन 1961 में स्वयं गुरु बाबा जी की जयंती का आयोजन कर, दादा नकुल ढीढी जी को भी वक्ता के रूप में निमंत्रित किये थे।
इस काल मे उन्होंने समता सैनिक दल का छत्तीसगढ़ में गठन किये थे और शोषित समाज को किसी के द्वारा सताए जाने पर समता सैनिक दल के साथ हथियार बंध होकर खड़े हो जाते थे। गुरु बाबा घासीदास जी के विचार को प्रचारित करने के लिए लिखित रूप में साक्ष्य के अभाव के कारण, बुद्धिज़्म से प्रभावित हुये तथा बुद्ध और घासीदास जी के विचारों का तुलनात्मक अध्ययन किये और प्रचार किये, इसी काल मे ही लेखक और गायकों ने गुरु बाबा जी के सम्बंध में लेख और गायन के माध्यम से जीवनवृत प्रस्तुत करने लगे। सामाजिक संरक्षण और राजनीतिक गतिविधि का कार्य भी साथ मे चलते रहा। सन 1961 में ही गिरौदपुरी के मेला को पंचमी से सप्तमी तक करवाये क्योकि पहले गिरौदपुरी मेला माघी पुन्नी को लगता था और हमारे लोग गिरौदपुरी जाकर शिवरीनारायण मेला जाने लगे थे तथा अनावश्यक खर्च करते थे, मन्दिर में चढ़ावा देते थे
सन 1962-75 पूर्व में किये गए कार्य और इन 14 वर्षों में सामाजिक चेतना, राजनैतिक जागरूकता, पाखण्ड और अंधविश्वास के प्रति लोगो को जगाना, सतनामी समाज को संरक्षण देना, गाँव गाँव मे 18 दिसम्बर गुरू बाबा जी के जयन्ती का आयोजन करना तथा बाबा साहब अम्बेडकर के विचारों को समाज मे फैलाने का काम करना, 14अप्रेल को अम्बेडकर जयंती का आयोजन करना, बुद्ध जयंती मनाकर उनका देशना को बताना इत्यादि कार्यों में लगे रहे।
दादा जी के उपरोक्त कार्य को देखकर समाज आंदोलित होने लगा और उनका कारवाँ बढ़ने लगा इसीलिए सन 1962 में ही अखिल भारतीय सतनामी महासभा जो गुरुओ, महंतो, सांसद, विधायक और बुद्धजीवी लोगो का संगठन था, ने पहली बार 18 दिसम्बर 1756 को गुरु बाबा घासीदास जी के जन्मदिन को सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया।
सन 1972 को दादा जी ने एक और महत्वपूर्ण कार्य किये जो ऐतिहासिक है, उन्होंने पृथक छत्तीसगढ़ राज्य के मांग को लेकर, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के बैनर तले 17 अक्टूबर 1972 से 27 अक्टूबर 1972 तक केन्द्रीय जेल रायपुर में सत्याग्रह किये, इस तरह छत्तीसगढ़ राज्य के लिए प्रथम जेल यात्री कहलाये, जेल ले जाते समय हथकड़ी लगाकर जेल ले जाया गया जैसे कोई अपराधी हो, इस बात को उन्होंने कई सभा मे बताया कि उन्हें कांग्रेस के राज में 19 सत्याग्रहियों साथियों के साथ हथकड़ी लगाकर ले जाया गया था।
सामाजिक संघर्ष, राजनीतिक संघर्ष, अदालती संघर्ष, जीवन भर करने के कारण 61 वर्ष के उम्र में 75-80 साल के बुजुर्ग लगते थे। ऐसे समाज सेवक बहुत ही बिरले समाज को मिलते है, शासन और सत्ता में नही होने के कारण उन्हें आज तक उचित सम्मान नही मिला। वह तो अम्बेडकर वादी व्यक्तियों का, कुछ निष्ठावान सामाजिक व्यक्तियों और कुछ सामाजिक संस्थानो का और कुछ लेखकों उपरोक्त लोगो के साथ साथ और भी कई लोगो ने दादा नकुल ढीढी जी के विचारो को जन मानस में पहुँचा कर उनके विचारों को जीवित रखा है और आज यह स्थिति है कि दादा नकुल ढीढी सतनामी समाज के दिल मे है और नाम का मोहताज नही है। ऐसे महान विभूति, दिनाँक 16 अगस्त 1975 को हम सब को छोड़कर अनन्त यात्रा में चले गए और प्राकृतिक में विलीन हो गये। दादा जी हमेशा प्रशासन और सत्ता से अपने लोगो के लिए लड़ते रहे इसलिए मध्यप्रदेश से लेकर छत्तीसगढ़ के सत्ता में शामिल लोग जानबूझ कर भी उनके कार्यक्रम में शामिल नही होते थे बल्कि कार्यक्रम को टालने का प्रयास करते है।