रायपुर.
कालीबाड़ी की रहने वाली पूर्णिमा जायसवाल पेंटिंग की दुनिया में एक्सपेरिमेंट पर यकीन रखती हैं। वह कहती हैं कि आर्ट को समय की पाबंदी में कैद नहीं किया जा सकता। भले इसकी शुरुआत तय हो लेकिन क्लाइमैक्स तय नहीं। वह तभी मुकम्मल होता है जब दिल से आवाज आए कि इट्स कम्प्लीट। पूर्णिमा खुद नई पीढ़ी का प्रतिनिधित्व करती हैं और लोगों को आर्ट से जोड़ने के लिए प्रदर्शनी भी लगाती हैं। उनका मानना है कि मैं अपनी कला में वह सच दिखाती हूं जो मैंने अनुभव किया है। यह कला दर्शकों को सोचने पर मजबूर करती है और उनकी राय बदल सकती है।
बचपन से ही क्रिएशन
वह कहती हैं कि जब मैं छोटी थी तो मुझे लगता था, जो मुझे चाहिए, पेरेंट्स वह समझ नहीं पाएंगे। मान लीजिए मुझे धागा चाहिए होता तो मैं खुद कुछ न कुछ क्रिएट कर लेती थी। ऐसा करते हुए मैं काफी कुछ बनाना सीख गई थी।
कभी-कभी पेंटिंग में दो वर्ष भी लग जाते
पूर्णिमा कहती हैं कि जब भी कैनवास पर कूची चलाती हूं, उस समय मुझे नहीं पता होता है कि आखिर में क्या निकलकर आएगा। मुझे ऐसा महसूस होता है कि पेंटिंग मुझे खुद कहती है कि यहां सुधारो। मैं खुद के लिए काम करती हूं। कुछ पेंटिंग में दो से तीन दिन तो किसी में दो साल तक लग जाते हैं। अगर कोई दूसरा कहता है तो मैं 10 दिन में ही बनाकर दे देती हूं मुझे पता है कि संबंधित व्यक्ति को कैसी पेंटिंग चाहिए।
सोच यह: कला जीवन के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण पैदा करती है।
मैं खुद से मोटिवेट होती हूं वह कहती हैं कि मैंने कभी यह नहीं सोचा कि दूसरे आर्टिस्ट, जो बनाते हैं उनसे मेरी पेंटिंग कितनी बेहतर है। मेरा मानना है कि हर किसी का अपना विजन होता है। वह अपने हिसाब से आउटपुट देता है। मैं नेचर और यूनिवर्स से प्रभावित होती हूं और खुद से मोटिवेट होती हूं।
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