पेसा एक्ट की शक्तियाँ सिर्फ कागजों तक सीमित


रायपुर, 14 जून 2023। भारतीय सामाजिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली द्वारा प्रायोजित राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे दिन “आज़ादी के 75 वर्ष और जनजातीय पारंपरिक संस्कृति का संरक्षण एवं विघटन की स्थिति”, “पेसा अधिनियम – 1996 का जनजातीय जीवनशैली में महत्व एवं उपयोगिता” एवं “वनाधिकार अधिनियम 2006 का जनजातीय पारंपरिक जीवन पर प्रभाव” विषय पर वक्ताओं ने विचार रखें। पं. रविवि के कला भवन के सेमिनार हाल में आयोजित संगोष्ठी में बस्तर से आए सामाजिक कार्यकर्ता योगेश नुरेटी ने कहा कि पेसा एक्ट के अंतर्गत प्रदान की गई शक्तियाँ सिर्फ कागजों तक सीमित है, पेसा अधिनियम आदिवासी पंचायतों को शक्ति तो देता है लेकिन जमीन पर यह देखने को नहीं मिलता है। उन्होने कहा कि वह खुद भी आदिवासी ग्राम सभा के सदस्य है लेकिन बहुत सारे निर्णय हमारे बिना सहमति के लिए जाते हैं। गोंडी संस्कृति के मर्मज्ञ 94 वर्षीय शेर सिंह आंचला ने कहा कि आज़ादी के इतने वर्षों पर सरकार हमारे संस्कृति के संरक्षण की बात कर रही है, यह हमारे लिए अच्छा प्रयास है। अगर आज़ादी के बाद ही इस तरह के प्रयास किए जाते तो आज स्थिति दूसरी होती।

संगोष्ठी के मुख्य वक्ता टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंस, मुंबई के प्रो. विपिन जोजो ने कहा कि जिस तरह पेसा अधिनियम के बनने पर आदिवासी समुदायों के द्वारा उत्सव मनाया गया था। उस तरह का परिणाम हमें देखने को नहीं मिले। कानून और जमीनी हकीकत में अंतर होने के कारण आज भी आदिवासी अपने को ठगा महसूस कर रहा हैं। प्रो. जोजो ने कहा कि जनजातीय समुदाय के लिए संविधान के अंदर संविधान है जो आदिवासी ग्राम पंचायतों को स्वायत्ता प्रदान करने के लिए दी गई थी। आज हम देखते हैं कि ग्राम सभा के अनुमति के बिना कैसे जमीन अधिग्रहण किया जाता है, इस पर बहुत से आंदोलन होते हैं। ये आंदोलन की शक्ति पेसा एक्ट प्रदान करता है।

कार्यक्रम में शहीद बिरसा मुंडा के स्मृति दिवस के अवसर पर उनके संघर्ष को याद करते हुए प्रो. एस. एन. चौधरी ने कहा कि झारखंड में बिरसा मुंडा को भगवान माना जाता है। हमें समझना होगा कि बिरसा मुंडा को भगवान क्यों कहा जाता है। बिरसा मुंडा एक साथ तीन लड़ाई लड़ रहे थे। सबसे पहला लड़ाई उनका अंग्रेजों से था, जो विभिन्न सरकारी नीतियों से आदिवासियों को परेशान कर रहे थे और उन्हें जंगलों के विभिन्न उत्पादों का प्रयोग करने से रोक रहे थे। दूसरी लड़ाई उनकी दिकुओं (बाहरी लोग) से थी जो आदिवासी इलाको में हस्तक्षेप कर रहे थे इसके साथ ही बिरसा मुंडा तीसरी लड़ाई भी लड़ रहे थे जो आदिवासी समुदाय में फैले अंधविश्वास, शराबखोरी के खिलाफ थी। उनका ये संघर्ष ही उन्हें पूरे समुदाय के लिए उन्हें भगवान बनाता है।

संगोष्ठी में मिजोरम केंद्रीय विश्वविद्यालय से आए समाजशास्त्री प्रो. आर. के. मोहंती ने कहा कि डॉ.बी.आर.अंबेडकर ने आदिवासियों की दुर्दशा को सुधारने के लिए हरसंभव प्रयास किया। हालांकि बहुत सारे लोग यह कहते हुए मिल जाएगे जो कहते हैं कि डॉ. अंबेडकर ने आदिवासियों के लिए कुछ नहीं किया। यह अफसोस की बात है कि आज़ादी के बाद के दौर में जयपाल मुंडा जैसा आदिवासी दूरदर्शी नेता नहीं मिला। आज़ादी के समय भारतीय राजनीति के केंद्र में मुख्यतया दो बाते थी, धर्म और सत्ता संसाधनों पर हिस्सेदारी का सवाल। देखा जाए तो दोनों लोगों ने आदिवासियों के हित में काम किया। डॉ. अंबेडकर संविधान सभा में उनके मुद्दे उठा रहे थे, तो जयपाल सिंह मुंडा आदिवासियों के बीच उनकी समस्याओं को देख रही थे।

पं. रविशंकर विश्वविद्यालय के मानवविज्ञानी प्रो. जितेंद्र कुमार प्रेमी ने कहा कि सतत विकास के लिए हमें आदिवासियों के पारंपरिक ज्ञान और संस्कृति को स्वीकार करना चाहिए। आदिवासी समुदाय में व्यक्तिवाद की जगह सामूहिकता की विशेषता देखने को मिलता है। आदिवासी समुदाय सह-अस्तित्व को महत्व देते हैं जिसके कारण वे प्रकृति को नुकसान नहीं करते हैं बल्कि अपने जीवन के लिए प्रकृति के अस्तित्व को महत्वपूर्ण मानते हैं। प्रकृति को बनाए रखने के लिए आदिवासियों में पायी जाने वाली असंग्रहण की प्रवृत्ति महत्वपूर्ण है इसके उलट अगर सभ्य कहे जाने वाले समाज की बात की जाए तो संग्रहण की बढ़ती प्रवृत्ति ने पर्यावरणीय समस्याओं को बढ़ाने का कारक बना है। आदिवासियों के पास अपने चिकित्सकीय, पर्यावरणीय पारंपरिक ज्ञान है जिसका सम्मान करते हुए स्वीकार करने की जरूरत है। प्रो. प्रेमी ने कहा कि आज हमें अपनी धरती और पूरी मानव जाति को बचाना है तो आदिवासियों की जीवनशैली और उनके पारंपरिक ज्ञान को स्वीकार करने की जरूरत है।


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