बूमकाल विद्रोह के 113 वर्ष 

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रायपुर 1 मार्च 2023/
भारत मे ब्रिटिश शासन, स्थानीय रियासतों की कमजोर स्थितियां, औद्योगिकरण का आरम्भ, इन सबकी पूर्ति के लिए संसाधनों का दोहन और इस प्रक्रिया के दौरान स्थानीय जनता का शोषण और दमन हर जनजातीय विद्रोह का आधार रहा है। बस्तर के महान बूमकाल विद्रोह 1910 के कारण भी यही सब थे जिसमें बस्तर राजमहल केंद्रीय भूमिका में था।
रुद्रप्रताप के शासनकाल में दीवान बैजनाथ पंडा के कुप्रशासन और उत्तराधिकार का प्रश्न उपर्युक्त कारणों में तात्कालिक कारण रहा और वातावरण स्थानीय बनाम बाहरी का बन गया। रानी सुबरन कुँवर और लाल कालेन्द्र सिंह ने इस विद्रोह के लिए प्रेरित किया और इसके लिए नेतानार गांव के उत्साही धुरवा आदिवासी युवा बागाधूर को नेतृत्व सौंपा। इस युवा ने अद्भुत संगठन शक्ति का परिचय दिया और बस्तर संभाग के बड़े हिस्से में द्रुत गति से इस आंदोलन को संचालित किया। इस आंदोलन का कोड वर्ड था ‘डारा मिरी’ अर्थात आम की डाल और मिर्च। यह इतनी तेजी और गुप्त रूप से हुआ कि विरोधियों को भनक तक न लगी। यह कुशल नेता बागाधूर ही इतिहास में महान विप्लवी गुण्डाधुर कहलाया।
विद्रोह का आगाज 2 फरवरी 1910 को पुसपाल बाजार की लूट से हुआ और एक के बाद एक इलाकों में कब्जा होता चला गया। बस्तर के राजा रुद्र प्रताप देव ने ब्रिटिश शासन को विद्रोह की जानकारी दी और सहायता की मांगी और कप्तान गेयर के नेतृत्व में मदद के तीन टुकड़ियां जगदलपुर पहुंची और आनेवाले 75 दिनों तक बस्तर में खून बहता रहा। 26 फरवरी को सुबह 511 विद्रोहियों को पकड़ लिया गया। आखिर में नेतानार के पास ही अलनार के जंगल में हुए 26 मार्च के संघर्ष में 21 आदिवासी मारे गये और डेबरीधुर और एक अन्य सहयोगी को जगदलपुर में फांसी दे दी गयी !
पर गुण्डाधुर जीवित था। न वह पकड़ में आया, न लाश मिली। सरकार की फाइल इस टिप्पणी के साथ बंद हो गई, “कोई यह बताने में समर्थ नहीं है कि गुंडाधुर कौन था? बकौल भाषाविज्ञानी Rajendra Prasad Singh  सर के, इसी समय गुण्डाधुर को पकड़ने एक नया एक्ट लाया गया जिसे गुंडा एक्ट कहते हैं। 1947 के बाद ब्रिटिश राज तो खत्म हो गया पर यह एक्ट चल ही रहा है। इस रोशनी में चाहिए कि इस एक्ट के नाम बदला जाए।

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